एक सख्त टिप्पणी वाले आदेश में बॉम्बे हाईकोर्ट ने पुणे के एक व्यवसायी द्वारा अपनी तलाकशुदा पत्नी को दी जाने वाली मासिक गुज़ारा भत्ता राशि ₹50,000 से बढ़ाकर ₹3.5 लाख कर दी। अदालत ने पाया कि पति ने अपनी वास्तविक आर्थिक स्थिति को जानबूझकर छिपाया था।
न्यायमूर्ति बी.पी. कोलाबावाला और न्यायमूर्ति सोमशेखर सुंदरासन की खंडपीठ ने माना कि व्यक्ति का केवल ₹6 लाख वार्षिक आय का दावा “हास्यास्पद” है, क्योंकि उसके परिवार के व्यापारिक हित ₹1,000 करोड़ से अधिक मूल्य के हैं। अदालत ने यह भी निर्देश दिया कि पति चार हफ्तों के भीतर ₹42 लाख बकाया राशि जमा करे।
पृष्ठभूमि
यह जोड़ा 1997 में विवाह बंधन में बंधा और 16 वर्ष साथ रहने के बाद 2013 में अलग हो गया। 2023 में पुणे की एक पारिवारिक अदालत ने विवाह को समाप्त करते हुए पति को ₹50,000 मासिक भत्ता देने का आदेश दिया था। दोनों पक्षों ने इस आदेश को चुनौती दी पत्नी ने राशि बढ़ाने की मांग की, जबकि पति ने आर्थिक असमर्थता का हवाला दिया।
पत्नी ने हाईकोर्ट को बताया कि वह अपनी बेटी की परवरिश अकेले कर रही है, जबकि उसका पूर्व पति अब भी ऐशो-आराम का जीवन जी रहा है। वहीं पति ने कहा कि कोविड के बाद उसकी आमदनी बहुत घट गई है और उसने “अपनी जिम्मेदारी पूरी कर ली है।” उसने यह भी दावा किया कि पत्नी के मामा को दिया गया ₹50 लाख का कर्ज़ भरण-पोषण के भुगतान के बराबर है, जिसे अदालत ने निराधार बताया।
अदालत के अवलोकन
पति के तर्कों को खारिज करते हुए पीठ ने कहा,
“वह अदालत में साफ हाथों से नहीं आया है। उसने अपनी आर्थिक स्थिति को छिपाया है और झूठे बयान दिए हैं।”
न्यायाधीशों ने कहा कि व्यवसायी का परिवार निर्माण, रियल एस्टेट और वित्त के क्षेत्र में कई कंपनियों का मालिक है और वह सार्वजनिक रूप से इन उद्यमों में प्रमुख व्यक्ति के रूप में प्रस्तुत किया गया है। फिर भी उसकी आयकर रिटर्न में बहुत कम आय दिखाई गई है।
न्यायमूर्ति सुंदरासन ने टिप्पणी की,
“सिर्फ ₹6 लाख की कर योग्य आय दिखाकर वह अदालत को यह विश्वास दिलाना चाहता है कि उसका जीवन ₹50,000 मासिक में चलता है। यह दावा पूरी तरह हास्यास्पद है।”
अदालत ने यह भी दर्ज किया कि पति ने महंगे कपड़े, विदेशी यात्राएँ और करोड़ों रुपये के पारिवारिक खातों में हस्तांतरण जैसी संपन्नता दिखाई, जो उसकी असली आर्थिक स्थिति को उजागर करती है। कोर्ट ने कहा कि कई कंपनी रिकॉर्ड जानबूझकर देर से दाखिल किए गए ताकि वास्तविक आय छिपाई जा सके।
अदालत का निर्णय
हाईकोर्ट ने पाया कि पारिवारिक अदालत द्वारा तय की गई ₹50,000 मासिक राशि “काफी अपर्याप्त” थी और पत्नी को पति की आर्थिक स्थिति के अनुरूप जीवन स्तर का अधिकार है।
“वह सम्मान के साथ जीवन जीने और अपनी बेटी को वैसा ही जीवन स्तर देने की हकदार है जैसा विवाह के दौरान था,” अदालत ने कहा। साथ ही, अदालत ने पति के इस तर्क को “पितृसत्तात्मक” बताया कि पत्नी को अपनी बेटी की योगा और संगीत कक्षाएं बंद कर देनी चाहिए।
अंततः, हाईकोर्ट ने गुज़ारा भत्ता ₹3.5 लाख मासिक कर दिया और पति को चार हफ्तों में बकाया राशि जमा करने का आदेश दिया।
पत्नी स्वयं पेश हुईं, जबकि पति की ओर से अधिवक्ता दुश्यंत पुरेकर और राजत देधिया उपस्थित थे।