जम्मू और कश्मीर तथा लद्दाख उच्च न्यायालय की श्रीनगर पीठ से एक महत्वपूर्ण फैसले में, मुख्य न्यायाधीश अरुण पल्लि और न्यायमूर्ति रजनेश ओस्वाल की खंडपीठ ने 6 नवम्बर 2025 को शायस्ता मकबूल की जम्मू और कश्मीर पब्लिक सेफ्टी एक्ट (PSA) के तहत हुई हिरासत को बरकरार रखा।
न्यायालय ने उनकी अपील खारिज करते हुए कहा कि निवारक हिरासत उचित थी, क्योंकि वह प्रतिबंधित आतंकी संगठन लश्कर-ए-तैयबा (LeT) से जुड़े लोगों के संपर्क में थीं और उनकी गतिविधियाँ संघ शासित प्रदेश की सुरक्षा के लिए खतरा थीं।
पृष्ठभूमि
शायस्ता मकबूल को दिसंबर 2023 में जिला मजिस्ट्रेट बांदीपोरा द्वारा जारी आदेश संख्या 19/DMB/PSA of 2023 के तहत हिरासत में लिया गया था।
अधिकारियों का आरोप था कि वह न केवल लश्कर-ए-तैयबा की “ओवरग्राउंड वर्कर (OGW)” थीं, बल्कि उन्होंने मुसैब लखवी से “गहरा व्यक्तिगत रिश्ता” भी रखा था, जो ज़की-उर-रहमान लखवी का भतीजा और 26/11 मुंबई हमलों का प्रमुख साज़िशकर्ता था।
दस्तावेज़ के अनुसार, शायस्ता ने सोशल मीडिया पर “Lakhvi Musaib” नाम से फेसबुक आईडी और एन्क्रिप्टेड ऐप्स का उपयोग करते हुए राजनीतिक नेताओं और सुरक्षा बलों की गतिविधियों से जुड़ी संवेदनशील सूचनाएं पाकिस्तान स्थित हैंडलर अबू ज़ेहरान और अबू हंस को भेजी थीं।
उनके वकील अधिवक्ता मुख्तार अहमद मक़रू ने तर्क दिया कि हिरासत आदेश अस्पष्ट था, इसमें किसी विशेष तिथि या हालिया गतिविधि का उल्लेख नहीं था। उन्होंने यह भी कहा कि अधिकारियों ने यह नहीं बताया कि “सामान्य कानून” उन पर कार्रवाई के लिए क्यों अपर्याप्त थे।
न्यायालय का अवलोकन
न्यायमूर्ति रजनेश ओस्वाल ने, जो इस खंडपीठ की ओर से निर्णय लिख रहे थे, कहा कि हिरासत प्राधिकारी ने स्पष्ट रूप से संबंधित व्यक्तियों के नाम और संपर्कों का विवरण दिया था और आरोपों की प्रकृति भी बताई थी। अदालत ने माना कि यह कहना गलत होगा कि आधार अस्पष्ट या असमर्थित थे।
न्यायालय ने कहा,
“अपीलकर्ता की कथित गतिविधियाँ सार्वजनिक नहीं बल्कि गुप्त थीं, जो एन्क्रिप्टेड प्लेटफॉर्म के माध्यम से संचालित की जाती थीं। ऐसे मामलों में ठोस साक्ष्य प्राप्त करना कठिन होता है।”
सर्वोच्च न्यायालय के Rameshwar Lal Patwari बनाम बिहार राज्य (1968) निर्णय का हवाला देते हुए खंडपीठ ने दोहराया कि एक बार जब हिरासत प्राधिकारी ने अपनी संतुष्टि बना ली, तो न्यायालय उस पर अपीलीय अधिकार से पुनर्विचार नहीं कर सकता।
निर्णय में कहा गया,
“हिरासत के बारे में राय बनाना संबंधित प्राधिकारी का अधिकार है। न्यायालय निवारक हिरासत मामलों में अपील न्यायालय की तरह कार्य नहीं कर सकते।”
अदालत ने Sasti बनाम पश्चिम बंगाल राज्य (1972) के निर्णय का उल्लेख करते हुए यह भी स्पष्ट किया कि यदि किसी व्यक्ति की कथित गतिविधियाँ सामान्य आपराधिक कानून के अंतर्गत अपराध हों, तब भी यदि वे सार्वजनिक व्यवस्था या राष्ट्रीय सुरक्षा को खतरा पहुँचाती हैं, तो निवारक हिरासत वैध हो सकती है।
निर्णय
उच्च न्यायालय ने पाया कि सभी संवैधानिक प्रावधानों का पालन किया गया था - हिरासत दस्तावेजों की आपूर्ति, प्रतिनिधित्व का अवसर और सलाहकार बोर्ड द्वारा समीक्षा, जिसने दिसंबर 2023 में हिरासत को उचित ठहराया था।
न्यायालय ने कहा कि एकल पीठ द्वारा दिया गया निर्णय “त्रुटिरहित” था और इसमें किसी हस्तक्षेप की आवश्यकता नहीं है।
खंडपीठ ने लेटर्स पेटेंट अपील (LPA No. 139/2025) को खारिज करते हुए आदेश दिया -
“हमें इस अपील में कोई योग्यता नहीं दिखती। अतः यह अपील खारिज की जाती है।”
इस प्रकार, शायस्ता मकबूल की निवारक हिरासत को चुनौती देने वाली याचिका खारिज कर दी गई और न्यायालय ने यह दोहराया कि पब्लिक सेफ्टी एक्ट का उपयोग उन मामलों में किया जा सकता है, जहाँ व्यक्ति की गतिविधियाँ प्रदेश की शांति और अखंडता को खतरा पहुँचा रही हों।
se Title: Shaista Maqbool v. Union Territory of Jammu & Kashmir and Another
Case Number: LPA No. 139 of 2025
Advocates:
- For Appellant: Mr. Mukhtar Ahmad Makroo, Advocate
- For Respondents: Mr. Jehangir Ahmad Dar, Government Advocate
Date Pronounced: 6 November 2025