गुरुवार को इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ बेंच ने Hindu Front for Justice द्वारा दायर एक PIL पर संक्षिप्त सुनवाई की, जिसमें केंद्र और राज्य सरकार को ऐसे निर्देश जारी करने की माँग की गई थी जो हिंदू देवताओं और पवित्र ग्रंथों के कथित “अपमान” को रोक सकें। अदालत का माहौल शांत था, लेकिन यह महसूस हो रहा था कि बेंच यह समझने की कोशिश कर रही है कि याचिकाकर्ता वास्तव में न्यायपालिका से क्या चाहते हैं।
पृष्ठभूमि
याचिकाकर्ता अदालत आए थे एक बेहद व्यापक प्रार्थना-पत्र लेकर-सरकार को “सख्त कदम” उठाने के निर्देश देने से लेकर आपराधिक कानूनों की समीक्षा तक, जो धार्मिक भावनाओं के अपमान से जुड़े अपराधों से निपटते हैं। उनकी याचिका में कई घटनाओं का ज़िक्र था, जिनमें से कई पहले से ही अलग-अलग अदालतों में लंबित हैं।
याचिका का एक पैराग्राफ विशेष रूप से उल्लेखनीय था। इसमें लिखा था कि याचिकाकर्ता “लंबे समय से” हिंदू देवताओं के “अपमान और विकृति” तथा रामचरितमानस और भगवद गीता जैसे ग्रंथों को जलाने की घटनाओं से पीड़ित हैं। उनका कहना था कि ऐसी हरकतें जीवन और धार्मिक स्वतंत्रता के उनके मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करती हैं।
लेकिन जैसे-जैसे सुनवाई आगे बढ़ी, बेंच को यह समझ में आ गया कि एक PIL का उपयोग इतने व्यापक और अस्पष्ट निर्देशों की माँग के लिए नहीं किया जा सकता। न कोई विशिष्ट घटना थी, न कोई प्रतिवादी, और न कोई ठोस मुद्दा जिसे अदालत तय करे।
अदालत की टिप्पणियाँ
बेंच-न्यायमूर्तिगण राजन रॉय और इंद्रजीत शुक्ला-ने याचिकाकर्ताओं से एक सरल लेकिन महत्वपूर्ण सवाल पूछा: क्या इस तरह की स्थितियों से निपटने के लिए देश में पहले से कानून मौजूद नहीं हैं?
याचिकाकर्ताओं ने स्वीकार किया कि ऐसे कानून मौजूद हैं-धार्मिक अपमान, वैमनस्य फैलाने और सार्वजनिक व्यवस्था भंग करने से जुड़े प्रावधान-लेकिन तर्क दिया कि ये “अप्रभावी” हैं।
जज इस तर्क से सहमत नहीं दिखे। “पीठ ने टिप्पणी की, ‘कानून का कार्यान्वयन कार्यपालिका का क्षेत्र है। इस प्रकार का सामान्य मंडामस जारी करना न्यायालय के अधिकार क्षेत्र में नहीं है।’” इससे साफ हो गया कि अदालत वह भूमिका नहीं निभाएगी जो संविधान ने विधायिका और सरकार को सौंप रखी है।
उन्होंने यह भी स्पष्ट कर दिया कि यदि याचिकाकर्ता कानूनों में संशोधन या नए कानून बनवाना चाहते हैं, तो अदालत सही जगह नहीं है। बेंच ने साफ शब्दों में कहा, “ऐसे राहत के लिए आपको संबंधित मंत्रालय के पास जाना चाहिए।”
एक और महत्वपूर्ण टिप्पणी तब आई जब जजों ने कहा कि याचिका में बताई गई कई घटनाएं पहले से ही अलग मुकदमों का हिस्सा हैं। एक PIL को “सुपर-पिटीशन” में बदलकर हर मुद्दे को समेटा नहीं जा सकता। अदालत के बाहर एक वकील ने हँसते हुए कहा, “ऐसा लग रहा था जैसे वे एक ही याचिका में सारे धार्मिक तनावों का समाधान चाहते थे।”
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निर्णय
अंत में, बेंच ने याचिकाकर्ताओं की कोई भी व्यापक माँग स्वीकार करने से इनकार कर दिया। आदेश में दर्ज किया गया कि ऐसी याचिका वास्तव में “सामान्य मंडामस” की माँग है, जो अदालतें जारी नहीं करतीं।
इसके बजाय, अदालत ने याचिका निस्तारित करते हुए याचिकाकर्ताओं को यह स्वतंत्रता दी कि वे अपनी चिंताओं के लिए केंद्र या राज्य सरकार के संबंधित मंत्रालय से संपर्क करें। आदेश का समापन बहुत सरल शब्दों में हुआ-उनकी शिकायतें “कानून के अनुसार विचार की जा सकती हैं,” और इस प्रकार PIL समाप्त हुई।
Case Title: Hindu Front for Justice Through National Convenor vs. Union of India & Others
Case No.: PIL No. 1230 of 2025
Case Type: Public Interest Litigation (PIL)
Decision Date: 4 December 2025








