मध्य प्रदेश हाईकोर्ट ने सतना कलेक्टर का आदेश रद्द किया, सरकारी जमीन घोषित करने पर कहा – “राज्य मशीनरी की विफलता का उदाहरण”

By Vivek G. • October 12, 2025

मध्य प्रदेश हाईकोर्ट ने सतना कलेक्टर का आदेश रद्द किया, भूमि को सरकारी घोषित करने पर देरी से की गई कार्रवाई और जांच की कमी पर नाराजगी जताई।

मध्य प्रदेश हाईकोर्ट, जबलपुर ने सतना कलेक्टर और रीवा कमिश्नर द्वारा पारित उन आदेशों को निरस्त कर दिया है जिनमें विवादित भूमि को सरकारी संपत्ति घोषित किया गया था। न्यायमूर्ति हिमांशु जोशी ने 25 सितम्बर 2025 को फैसला सुनाते हुए कहा कि संबंधित अधिकारियों ने अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर जाकर कार्य किया और भूमि स्वामित्व छीनने से पहले उचित जांच नहीं की।

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पृष्ठभूमि

यह मामला चित्रकूट के मजगवां क्षेत्र, जिला सतना की एक पुरानी भूमि विवाद से जुड़ा है। याचिकाकर्ता रमेश सिंह व अन्य ने 2004 में यह भूमि मूल आवंटियों (प्रत्यर्थी क्रमांक 5 और 6) से विधिवत विक्रय पत्र के माध्यम से खरीदी थी। इन विक्रेताओं को 1978 में भूमि आवंटन के बाद 1988 में भूमिस्वामी (स्वामित्वाधिकार प्राप्त कृषक) घोषित किया गया था।

लेकिन कई वर्षों बाद, 2016 में एक निजी व्यक्ति (प्रत्यर्थी क्रमांक 4), जिसका भूमि से कोई संबंध नहीं था, ने कलेक्टर के समक्ष शिकायत दर्ज कराई। कलेक्टर ने सुओ मोटो कार्रवाई करते हुए भूमि को सरकारी संपत्ति घोषित कर दिया। रीवा संभाग के कमिश्नर ने 2022 में इस आदेश को बरकरार रखा। इसके बाद याचिकाकर्ताओं ने संविधान के अनुच्छेद 227 के तहत हाईकोर्ट में याचिका दायर की।

याचिकाकर्ताओं का कहना था कि यह शिकायत दुर्भावनापूर्ण थी और शिकायतकर्ता “आदतन ब्लैकमेलर” है जिसने पहले भी झूठा सिविल वाद दायर किया था, जिसे बाद में ₹15,000 की लागत लगाकर वापस लेना पड़ा।

न्यायालय के अवलोकन

न्यायमूर्ति जोशी ने अभिलेखों की जांच करते हुए पाया कि कलेक्टर ने सुओ मोटो कार्रवाई वर्ष 2017 में की-जो कि भूमि विक्रय के 13 वर्ष बाद और मध्य प्रदेश भू-राजस्व संहिता (MPLRC) की धारा 50 के तहत निर्धारित 180 दिनों की समयसीमा से बहुत अधिक थी।

न्यायालय ने रणवीर सिंह बनाम राज्य मध्य प्रदेश (2010) के फुल बेंच निर्णय का हवाला देते हुए दोहराया कि “सुओ मोटो अधिकार की शक्ति सूचना प्राप्त होने के 180 दिनों के भीतर ही प्रयोग की जा सकती है।” इसलिए 13 वर्ष बाद की गई कार्रवाई विधिसम्मत नहीं थी।

अदालत ने यह भी कहा कि कलेक्टर ने उपखण्ड अधिकारी की नई रिपोर्ट आने की प्रतीक्षा किए बिना जल्दबाजी में आदेश पारित कर दिया। “कलेक्टर ने आदेश पारित करने से पहले पूर्ण जांच करने में असफलता दिखाई है,” न्यायमूर्ति जोशी ने टिप्पणी की।

कड़े शब्दों में अदालत ने कहा, “यह मामला राज्य मशीनरी की विफलता का क्लासिक उदाहरण है। दो दशक बाद किसी ऐसे व्यक्ति की शिकायत पर, जिसका संभवतः निजी द्वेष था, अधिकारी गहरी नींद से जाग उठे।”

न्यायालय ने आगे कहा कि याचिकाकर्ता प्रथमदृष्टया bona fide (सद्भावनापूर्ण) खरीदार प्रतीत होते हैं और उनका भूमिस्वामी दर्जा - जो कि भूमि स्वामित्व से जुड़ा एक ठोस अधिकार है - “आधी-अधूरी जांच के आधार पर छीना नहीं जा सकता।”

निर्णय

हाईकोर्ट ने पाया कि कलेक्टर और कमिश्नर दोनों के आदेश विधिसम्मत नहीं थे और उन्हें रद्द कर दिया गया।

“दिनांक 03.03.2020 और 21.10.2022 के आदेश निरस्त किए जाते हैं,” न्यायालय ने कहा। “याचिका स्वीकार की जाती है।”

इसके साथ ही, हाईकोर्ट ने यह मूल सिद्धांत दोहराया कि एक बार भूमि अधिकार विधिवत प्रदान हो जाएं और वर्षों तक निर्विवाद बने रहें, तो उन्हें प्रशासनिक मनमानी या विलंबित कार्रवाई के आधार पर समाप्त नहीं किया जा सकता।

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