एक महत्वपूर्ण फैसले में, दिल्ली हाई कोर्ट ने केंद्रीय प्रशासनिक अधिकरण (CAT) का वह आदेश रद्द कर दिया जिसमें तिहाड़ जेल के एक अधिकारी को कदाचार के आरोपों से बरी किया गया था। न्यायमूर्ति नवीन चावला और न्यायमूर्ति मधु जैन की पीठ ने 26 सितम्बर 2025 को कहा कि ट्रिब्यूनल ने विभागीय जांच में सबूतों की पुनः समीक्षा कर अपनी अधिकार-सीमा से आगे जाकर हस्तक्षेप किया।
पृष्ठभूमि
यह मामला वर्ष 2003 का है, जब संजीव कुमार, उस समय तिहाड़ जेल में सहायक अधीक्षक के पद पर कार्यरत थे, पर बंदियों के साथ दुर्व्यवहार का आरोप लगा। तीन विचाराधीन कैदियों - श्यामू सम्राट, शंकर सिंह और सरफ़राज़ - ने अलग-अलग अदालतों में अपने वकीलों के माध्यम से शिकायत दर्ज कराई कि उनके साथ मारपीट और वसूली की गई।
अदालतों ने जेल प्रशासन से रिपोर्ट मांगी। दो मामलों में चिकित्सीय जांच से आरोप साबित नहीं हुए, लेकिन सरफ़राज़ ने अपनी शिकायत पर अडिग रहते हुए आरोप जारी रखा। इसके बाद विभागीय जांच शुरू हुई और 2005 में अनुशासनिक प्राधिकारी ने संजीव कुमार की दो वेतन-वृद्धियों को स्थायी रूप से रोकने की सज़ा दी, जिससे उनकी पेंशन पर भी असर पड़ा। 2006 में उनकी अपील खारिज कर दी गई।
सज़ा से असंतुष्ट होकर कुमार ने 2007 में ट्रिब्यूनल का दरवाज़ा खटखटाया। 2008 में ट्रिब्यूनल ने सज़ा को निरस्त कर दिया और कहा कि सबूत पर्याप्त नहीं हैं तथा उन्हें सभी सेवा लाभ दिए जाएँ।
न्यायालय की टिप्पणियाँ
हाई कोर्ट ने कहा कि अनुशासनात्मक मामलों में न्यायिक समीक्षा का अधिकार तो है, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि अदालतें या ट्रिब्यूनल अपीलीय निकाय की तरह सबूतों की पुनः जाँच करें। सुप्रीम कोर्ट के बी.सी. चतुर्वेदी बनाम भारत संघ और भारत संघ बनाम पी. गुणशेखरन मामलों का हवाला देते हुए पीठ ने ज़ोर दिया कि न्यायिक समीक्षा का क्षेत्र केवल प्रक्रिया की निष्पक्षता तक सीमित है, तथ्यों के पुनः मूल्यांकन तक नहीं।
पीठ ने टिप्पणी की -
"ट्रिब्यूनल यह समझने में विफल रहा कि औपचारिक जांच के दौरान दर्ज गवाही का महत्व एक प्रारंभिक, बिना हस्ताक्षर वाले शिकायत पत्र से कहीं अधिक होता है।"
न्यायाधीशों ने रेखांकित किया कि विचाराधीन कैदी सरफ़राज़ ने जांच में लगातार कुमार का नाम लिया और आरोप लगाया कि उन्होंने मारपीट की और 5,000 रुपये की माँग की। जिरह के दौरान भी उसने अपनी बात से पीछे नहीं हटे।
"यह सीधा और स्पष्ट आरोप नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता," पीठ ने कहा।
जहाँ तक यह तर्क दिया गया कि उप-अधीक्षक एस.के. मट्टा और कुमार के बीच निजी दुश्मनी थी, कोर्ट ने कहा कि इसका कोई ठोस प्रमाण प्रस्तुत नहीं किया गया। भले ही उनकी गवाही को अलग रख दिया जाए, सरफ़राज़ की गवाही अपने आप में पर्याप्त थी क्योंकि सेवा मामलों में "संभावनाओं के पलड़े" (preponderance of probabilities) का मानदंड लागू होता है।
फैसला
मामले का निपटारा करते हुए, दिल्ली हाई कोर्ट ने 2008 का ट्रिब्यूनल आदेश रद्द कर दिया और अनुशासनिक प्राधिकारी द्वारा दी गई मूल सज़ा को बहाल कर दिया।
पीठ ने कहा -
"विवादित आदेश सबूतों की पुनः समीक्षा कर और महत्वपूर्ण सामग्री को नज़रअंदाज़ कर क्षेत्राधिकार की त्रुटि से ग्रस्त है। अनुशासनिक प्राधिकारी द्वारा लगाई गई सज़ा बहाल की जाती है।"
इस प्रकार, संजीव कुमार की वेतन-वृद्धि रोकने और पेंशन पर नकारात्मक प्रभाव डालने वाली सज़ा अब कायम रहेगी। अदालत ने किसी भी पक्ष पर लागत (कॉस्ट) नहीं डाली।
Case Title:- Director General vs. Sanjeev Kumar
Case Number:- W.P.(C) 6860/2009 & CM 2099/2009