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मद्रास उच्च न्यायालय के नियम पारिवारिक अदालतें आपसी तलाक के मामलों में अनिवार्य एक साल के अलगाव को माफ कर सकती हैं

Shivam Y.

एस.जी.एस. और एम.एस.पी. बनाम शून्य - मद्रास उच्च न्यायालय ने आपसी तलाक में एक साल के अलगाव की छूट की अनुमति दी, फैसला सुनाया कि पारिवारिक अदालतें जोड़ों को अनावश्यक रूप से इंतजार करने के लिए मजबूर नहीं कर सकती हैं।

मद्रास उच्च न्यायालय के नियम पारिवारिक अदालतें आपसी तलाक के मामलों में अनिवार्य एक साल के अलगाव को माफ कर सकती हैं

मद्रास हाईकोर्ट ने गुरुवार को भारतीय तलाक अधिनियम के तहत आपसी सहमति से तलाक चाहने वाले दंपतियों के सामने आने वाली एक बड़ी अड़चन को दूर कर दिया। न्यायमूर्ति पी.बी. बालाजी ने सीआरपी नं.4013/2025 में आदेश सुनाते हुए कहा कि फैमिली कोर्ट आपसी सहमति से तलाक की याचिका दायर करने से पहले अनिवार्य एक वर्ष के अलगाव पर जोर नहीं दे सकते। यह आदेश कोयंबटूर के एक दंपति की याचिका पर आया, जिनका प्रारंभिक अनुरोध फैमिली कोर्ट ने अस्वीकार कर दिया था।

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पृष्ठभूमि

यह दंपति, जिनकी शादी कुछ वर्ष पहले हुई थी, अप्रैल 2025 में भारतीय तलाक अधिनियम की धारा 10A के तहत फैमिली कोर्ट पहुँचे और आपसी सहमति से विवाह समाप्त करने की माँग की। उन्होंने अपूरणीय मतभेदों का हवाला देते हुए कहा कि उनका वैवाहिक रिश्ता पूरी तरह टूट चुका है। लेकिन फैमिली कोर्ट ने उनकी याचिका लौटा दी, यह कहते हुए कि कानून के अनुसार दंपति को कम से कम एक वर्ष तक अलग रहना अनिवार्य है।

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इस फैसले से असंतुष्ट होकर दंपति हाईकोर्ट पहुँचा। उनके वकील श्री जी.आर. दीपक ने दलील दी कि जब रिश्ता पूरी तरह टूट चुका है, तब केवल कानूनी प्रतीक्षा अवधि को लेकर दोनों को मजबूर करना अनुचित है और इससे उनकी पीड़ा और लंबी होगी।

अदालत की टिप्पणियाँ

न्यायमूर्ति बालाजी ने दो महत्वपूर्ण मामलों का संज्ञान लिया। पहला, उन्होंने 2022 में केरल हाईकोर्ट के अनुप डिसाल्वा बनाम भारत संघ के फैसले को उद्धृत किया, जिसमें खंडपीठ ने अनिवार्य प्रतीक्षा अवधि को मनमाना और असंवैधानिक घोषित किया था।

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मद्रास हाईकोर्ट ने कहा,

"एक वर्ष या उससे अधिक का यह प्रावधान मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है," और भले ही यह आदेश बाध्यकारी न हो, लेकिन इसका प्रभावी महत्व अवश्य है।

दूसरा, उन्होंने सर्वोच्च न्यायालय के शिल्पा सैलेश बनाम वरुण श्रीनिवासन (2023) और अमरीप सिंह बनाम हर्वीन कौर (2017) के निर्णयों पर भरोसा किया। दोनों मामलों में यह स्वीकार किया गया था कि यदि मेल-मिलाप की कोई संभावना नहीं है, तो अदालतें कूलिंग ऑफ अवधि को माफ कर सकती हैं ताकि अनावश्यक पीड़ा से बचा जा सके।

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न्यायमूर्ति बालाजी ने टिप्पणी की,

"प्रतीक्षा अवधि केवल इस उद्देश्य से है कि पति-पत्नी अपने अलगाव के निर्णय पर दोबारा सोच सकें, और कुछ नहीं।" उन्होंने यह भी कहा कि जब दंपति पहले ही दृढ़ और स्वेच्छा से निर्णय ले चुका हो, तब उन्हें जबरन प्रतीक्षा करने पर मजबूर करना व्यर्थ है।

महत्वपूर्ण बात यह रही कि अदालत ने पाया कि याचिकाकर्ताओं के कोई संतान नहीं है और दोनों ने शपथपत्र देकर यह सुनिश्चित किया है कि वे अपनी इच्छा से अलग होना चाहते हैं। जबरदस्ती, धोखाधड़ी या दबाव का कोई आरोप नहीं था। इसलिए न्यायालय ने उनकी स्वतंत्रता और स्वेच्छा को सर्वोपरि माना।

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निर्णय

मामले का निपटारा करते हुए न्यायमूर्ति बालाजी ने कोयंबटूर फैमिली कोर्ट का आदेश रद्द कर दिया और उसे निर्देश दिया कि दंपति की तलाक याचिका बिना एक वर्ष के अलगाव की शर्त पर जोर दिए स्वीकार करे।

उन्होंने कहा, "सुप्रीम कोर्ट और केरल हाईकोर्ट के फैसलों के आलोक में फैमिली कोर्ट को अनिवार्य प्रतीक्षा अवधि माफ करने का अधिकार है और वह दंपति को इसे पूरा करने के लिए मजबूर नहीं कर सकता।"

इस निर्णय के साथ हाईकोर्ट ने दोहराया कि प्रक्रिया की कठोरता पहले से ही पीड़ित दंपतियों की पीड़ा को और न बढ़ाए। सिविल पुनरीक्षण याचिका को मंज़ूरी दी गई और खर्च का कोई आदेश नहीं दिया गया।

केस का शीर्षक: S.G.S & M.S.P vs Nil

केस नंबर: CRP No.4013 of 2025

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