देश भर की अदालतों को सख्त संदेश देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने गोवा निवासी की ₹6 लाख के बाउंस चेक मामले में सजा को बहाल कर दिया और साथ ही भारत में बढ़ते चेक बाउंस मामलों के बैकलॉग से निपटने के लिए व्यापक दिशा-निर्देश जारी किए। जस्टिस मनमोहन और एन.वी. अंजारिया की पीठ ने 2009 के बॉम्बे हाईकोर्ट के उस आदेश को रद्द कर दिया जिसमें आरोपी किशोर एस. बोरकार को बरी किया गया था। अदालत ने कहा कि पहले दिया गया बरी करने का आदेश “विकृत” और अस्थिर था।
पृष्ठभूमि
मामला एक दोस्ताना ऋण से जुड़ा है जिसमें संजाबिज तारी ने दावा किया कि उन्होंने बोरकार को ₹6 लाख उधार दिए थे। जब पुनर्भुगतान का चेक बाउंस हो गया तो तारी ने परक्राम्य लिखत अधिनियम (Negotiable Instruments Act) की धारा 138 के तहत मामला दर्ज कराया, जो चेक dishonour को आपराधिक अपराध बनाता है। ट्रायल कोर्ट (2007) और सेशंस कोर्ट (2008) दोनों ने बोरकार को दोषी ठहराया। हालांकि, 2009 में बॉम्बे हाईकोर्ट ने तारी के वकील की अनुपस्थिति में इन फैसलों को पलट दिया। इसके बाद तारी ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया।
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अदालत की टिप्पणियाँ
सुप्रीम कोर्ट ने जोर दिया कि जब चेक पर हस्ताक्षर स्वीकार कर लिए जाते हैं, तो कानून यह मानता है कि यह वैध ऋण के लिए जारी किया गया था, जब तक कि आरोपी इसका उलटा साबित न कर दे।
पीठ ने कहा, “जब शिकायतकर्ता के सबूत को संपूर्ण रूप से पढ़ा जाए, तो यह नहीं कहा जा सकता कि शिकायतकर्ता के पास ऋण देने की क्षमता नहीं थी।”
न्यायाधीशों ने बोरकार के इस दावे को खारिज कर दिया कि यह चेक एक खाली साधन था जो दोस्त की बैंक से ऋण लेने में मदद के लिए दिया गया था। कोर्ट ने इसे “अविश्वसनीय और बेतुका” करार दिया। उन्होंने यह भी नोट किया कि बोरकार ने वैधानिक नोटिस का जवाब नहीं दिया, “जिससे यह अनुमान लगता है कि शिकायतकर्ता का संस्करण सही है।”
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वृहद स्तर पर, कोर्ट ने निचली अदालतों की आलोचना की कि वे चेक मामलों को सामान्य दीवानी मुकदमों की तरह मान रही हैं, और चेतावनी दी कि ऐसा रवैया बैंकिंग प्रणाली पर भरोसे को कमजोर करता है। अदालत ने चिंताजनक आंकड़े पेश किए-सिर्फ दिल्ली में ही 6.5 लाख से अधिक चेक बाउंस मामले लंबित हैं-और तत्काल सुधारों की आवश्यकता बताई।
फैसला
अपील को स्वीकार करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने ट्रायल और सेशंस कोर्ट के दोषसिद्धि आदेशों को बहाल कर दिया। बोरकार को 15 मासिक किस्तों में ₹50,000 प्रति किस्त के हिसाब से कुल ₹7.5 लाख चुकाना होगा।
साथ ही, कोर्ट ने 1 नवंबर 2025 से लागू होने वाले देशव्यापी दिशानिर्देश जारी किए:
- तेज समन प्रक्रिया: शिकायतकर्ता सीधे और इलेक्ट्रॉनिक माध्यम से, जैसे ईमेल या मैसेजिंग ऐप, समन भेज सकते हैं।
- जल्दी निपटारा: जिला अदालतों को समन में सुरक्षित ऑनलाइन भुगतान लिंक देना होगा ताकि शीघ्र समाधान को बढ़ावा मिले।
- अनिवार्य केस सारांश: हर शिकायत में चेक का विवरण, तारीखें और कार्रवाई का कारण बताने वाला एक पन्ने का सारांश होना चाहिए।
- डैशबोर्ड व मॉनिटरिंग: दिल्ली, मुंबई और कोलकाता के जिला जजों को लंबित मामलों और निपटान दरों की वास्तविक समय की निगरानी के लिए डैशबोर्ड बनाए रखना होगा।
“सजा का उद्देश्य प्रतिशोध नहीं, बल्कि धन की अदायगी सुनिश्चित करना और चेक की विश्वसनीयता को बढ़ावा देना है,” न्यायाधीशों ने निष्कर्ष में कहा।
मामला: संजाबीज तारी बनाम किशोर एस. बोरकर एवं अन्य - भारत का सर्वोच्च न्यायालय
अपील संख्या: आपराधिक अपील संख्या 1755/2010
उद्धरण: 2025 आईएनएससी 1158
निर्णय की तिथि: 25 सितंबर 2025