एक भावनात्मक और विस्तृत फैसले में, केरल हाईकोर्ट ने शुक्रवार को राज्य सरकार को किशोर न्याय प्रणाली में सुधार के लिए कई अनिवार्य निर्देश जारी किए। मुख्य न्यायाधीश नितिन जामदार और न्यायमूर्ति बसंत बालाजी की खंडपीठ ने यह फैसला उस स्वत: संज्ञान मामले में दिया जो बचपन बचाओ आंदोलन द्वारा दायर लोकहित याचिका के साथ क्लब किया गया था। यह संगठन नोबेल शांति पुरस्कार विजेता कैलाश सत्यार्थी द्वारा स्थापित किया गया है।
अदालत का उद्देश्य साफ था - यह सुनिश्चित करना कि राज्य सर्वोच्च न्यायालय के ऐतिहासिक संपूर्णा बेहुरा मामले में दिए गए निर्देशों और किशोर न्याय (बालों की देखभाल और संरक्षण) अधिनियम, 2015 का कड़ाई से पालन करे।
पृष्ठभूमि
यह मामला सर्वोच्च न्यायालय के संपूर्णा बेहुरा बनाम भारत संघ (2018) फैसले से उपजा था, जिसमें सभी उच्च न्यायालयों को यह निर्देश दिया गया था कि वे किशोर न्याय अधिनियम के कार्यान्वयन की निगरानी के लिए स्वत: संज्ञान कार्यवाही प्रारंभ करें।
इसके बावजूद, केरल हाईकोर्ट ने चिंता जताई कि राज्य में अनुपालन अधूरा है। याचिकाकर्ताओं, जिनमें बचपन बचाओ आंदोलन भी शामिल था, ने बाल संरक्षण संस्थाओं में लंबित रिक्तियों, बाल गृहों की अपर्याप्त निरीक्षण प्रक्रिया और नाबालिगों के पुनर्वास में खामियों की ओर इशारा किया। राज्य के अपने हलफनामे में भी कई कमियों को स्वीकार किया गया, जिसके बाद अदालत ने सख्त रुख अपनाया।
न्यायालय के अवलोकन
न्यायमूर्ति बसंत बालाजी ने विस्तृत 70-पृष्ठीय निर्णय में न्यायमूर्ति वी.आर. कृष्ण अय्यर के शब्दों को उद्धृत करते हुए कहा:
“सभ्यता का असली पैमाना इस बात में है कि वह अपनी युवा पीढ़ी के प्रति अपने कर्तव्यों को कैसे निभाती है।”
खंडपीठ ने कहा कि केरल में बाल कल्याण के लिए प्रगतिशील कानून और संस्थान तो हैं, लेकिन “समस्या कानून के शब्दों में नहीं, उसके क्रियान्वयन में है।” अदालत ने पाया कि केरल राज्य बाल अधिकार संरक्षण आयोग (KeSCPCR), किशोर न्याय बोर्ड (JJBs) और बाल कल्याण समितियों (CWCs) में रिक्त पदों के कारण उनका कार्य गंभीर रूप से प्रभावित हुआ है।
निरीक्षणों के मुद्दे पर अदालत ने टिप्पणी की,
“बाल गृहों का प्रबंधन अत्यंत महत्वपूर्ण है, और निरीक्षण को केवल औपचारिकता के रूप में नहीं देखा जा सकता।”
न्यायालय ने यह भी नाराजगी जताई कि राज्य ने अब तक अपने राज्य-विशिष्ट किशोर न्याय मॉडल नियम तैयार नहीं किए हैं, जबकि उसे अधिनियम की धारा 110 के तहत यह अधिकार प्राप्त है। अदालत ने चेतावनी दी कि “हर देरी का सीधा असर उन बच्चों पर पड़ता है जो संरक्षण या पुनर्वास की जरूरत में हैं।”
इसके अलावा, अदालत ने बाल गृहों के सामाजिक ऑडिट की धीमी गति पर निराशा व्यक्त करते हुए कहा कि यह “जवाबदेही का एक अत्यंत महत्वपूर्ण उपकरण” है। अदालत ने सर्वोच्च न्यायालय के Re: Exploitation of Children in Orphanages मामले का हवाला दिया, जिसमें कहा गया था कि सामाजिक ऑडिट ही यह सुनिश्चित करने का सबसे प्रभावी तरीका है कि बाल गृह वास्तव में मानवीय और पारदर्शी हों।
निर्णय और निर्देश
यह मानते हुए कि “केवल कानून बनाना बच्चों के लिए न्याय की गारंटी नहीं दे सकता,” उच्च न्यायालय ने कई समयबद्ध निर्देश जारी किए। इनमें प्रमुख निर्देश इस प्रकार हैं:
- रिक्तियां भरना: राज्य को बाल अधिकार आयोग के सभी रिक्त पद चार सप्ताह में भरने होंगे और भविष्य की भर्ती प्रक्रिया चार माह पहले शुरू करनी होगी।
- रिपोर्ट और निगरानी: वर्ष 2024–25 की वार्षिक रिपोर्ट आठ सप्ताह में पूरी की जाए और आगे से हर वर्ष जून तक प्रकाशित हो।
- निरीक्षण: राज्य के 737 बाल गृहों का शेष निरीक्षण तीन माह में पूरा किया जाए तथा वार्षिक निरीक्षण के लिए SOP तैयार की जाए।
- न्यायिक संस्थाएं: CWCs और JJBs का पुनर्गठन आठ सप्ताह में पूरा हो। CWCs को हर माह कम से कम 21 दिन की बैठकें करनी होंगी।
- पर्यवेक्षण अधिकारी: प्रोबेशन विभाग की सभी रिक्तियां चार माह में भरी जाएं और भविष्य की नियुक्तियां पहले से तय प्रक्रिया के अनुसार हों।
- पुलिस सुधार: हर थाने में चार माह के भीतर एक बाल कल्याण अधिकारी नियुक्त किया जाए; DSP स्तर के अधिकारियों के अधीन SJPUs का पुनर्गठन किया जाए।
- तकनीकी एकीकरण: मिशन वात्सल्य और ट्रैक चाइल्ड पोर्टल पर सभी बाल संरक्षण डेटा तीन माह में अपलोड किया जाए।
- सामाजिक ऑडिट: सभी बाल संस्थाओं का सामाजिक ऑडिट छह माह में पूरा किया जाए और हर वर्ष जून तक रिपोर्ट दाखिल की जाए।
- मॉडल नियम: केरल के ड्राफ्ट किशोर न्याय मॉडल नियम तीन माह में अंतिम रूप देकर अधिसूचित किए जाएं।
अंत में, अदालत ने महिला एवं बाल विकास विभाग के प्रमुख सचिव को इन निर्देशों के क्रियान्वयन की निगरानी का दायित्व सौंपा और कहा कि सभी संबंधित एजेंसियां सहयोग करें।
Case Title: Suo Motu v. The Government of Kerala & Others