8 अक्टूबर 2025 को दिए गए एक महत्वपूर्ण फैसले में राजस्थान हाईकोर्ट, जयपुर पीठ ने जयपुर के व्यापारी गोपाल शर्मा की चेक बाउंस मामले में दोषसिद्धि को बहाल कर दिया। अदालत ने कहा कि समय-सीमा पार हो चुका कर्ज भी वैध रूप से लागू हो सकता है, अगर उसका भुगतान करने का वादा भारतीय अनुबंध अधिनियम, 1872 की धारा 25(3) के तहत लिखित रूप में किया गया हो।
न्यायमूर्ति प्रमिल कुमार माथुर ने यह फैसला रतीराम यादव बनाम गोपाल शर्मा के बीच चल रही पाँच आपस में जुड़ी आपराधिक पुनरीक्षण याचिकाओं पर सुनाया - जिनमें से चार शिकायतकर्ता यादव द्वारा और एक शर्मा द्वारा दायर की गई थी।
पृष्ठभूमि
यह कानूनी विवाद 2009 में शुरू हुआ जब रतीराम यादव ने गोपाल शर्मा को एक कर्ज दिया। इसके बदले में शर्मा ने चार हस्ताक्षरित लेकिन बिना तारीख वाले चेक सौंपे, जिनमें प्रत्येक की राशि ₹1.25 लाख थी। ये चेक स्टेट बैंक ऑफ बिकानेर एंड जयपुर, मुरलीपुरा शाखा के थे।
2013 में यादव ने चेकों पर तारीख भरकर उन्हें बैंक में प्रस्तुत किया, लेकिन सभी चेक 'पर्याप्त धनराशि नहीं' (insufficient funds) के कारण अस्वीकृत हो गए। विधिक नोटिस भेजने के बाद भी भुगतान न मिलने पर यादव ने एन.आई. एक्ट की धारा 138 के तहत मामला दायर किया, जो वैध कर्ज के भुगतान न होने पर दंड का प्रावधान करता है।
निचली अदालत ने शर्मा को सभी चार मामलों में दोषी ठहराया, लेकिन अपील पर जयपुर महानगरीय अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश (नं. 12) ने तीन मामलों में उन्हें बरी कर दिया और एक में सज़ा घटा दी। इस विरोधाभासी निर्णय के बाद दोनों पक्ष हाईकोर्ट पहुँचे।
अदालत के अवलोकन
न्यायमूर्ति माथुर ने इस बात की जांच की कि क्या 2009 में जारी किए गए लेकिन 2013 में प्रस्तुत किए गए चेक कानूनी रूप से प्रवर्तनीय थे, यह देखते हुए कि ऋण निश्चित रूप से सीमा अधिनियम के तहत समय-सीमा पार कर चुका था।
अदालत ने माना कि एक बार जब कोई व्यक्ति चेक पर हस्ताक्षर करके स्वेच्छा से देता है, तो एन.आई. एक्ट की धारा 118 और 139 के तहत यह मान लिया जाता है कि वह किसी देयता या ऋण की अदायगी के लिए जारी किया गया है। यह मान्यता खंडनीय (rebuttable) है, लेकिन इसे निरस्त करने के लिए ठोस सबूत चाहिए, जो आरोपी पेश नहीं कर सका।
"समय-सीमा पार कर्ज की अदायगी के लिए दिया गया चेक भारतीय अनुबंध अधिनियम की धारा 25(3) के दायरे में आता है," न्यायाधीश ने कहा।
"इसलिए, यह तर्क कि कर्ज कानूनी रूप से लागू नहीं था, निराधार है।"
पीठ ने कई उच्चतम न्यायालय के फैसलों - जैसे A.V. Murthy बनाम B.S. Nagabasavanna और S. Natarajan बनाम Sama Dharman - का हवाला देते हुए कहा कि चेक जैसे लिखित वादे के माध्यम से समय-सीमा पार कर्ज भी फिर से लागू हो सकता है।
शर्मा द्वारा दिए गए इस तर्क को कि चेक केवल “सिक्योरिटी” थे, अदालत ने Sripati Singh बनाम State of Jharkhand (2022) के फैसले का हवाला देते हुए खारिज कर दिया। अदालत ने कहा कि अगर कर्ज का भुगतान नहीं किया गया तो सुरक्षा चेक भी प्रस्तुत करने योग्य बन जाता है।
"सिक्योरिटी के रूप में जारी चेक को हर परिस्थिति में बेकार कागज़ नहीं माना जा सकता," अदालत ने कहा। "अगर भुगतान नहीं होता, तो ऐसा चेक भी लागू हो जाता है।"
निर्णय
हाईकोर्ट ने माना कि अपील अदालत ने गलती से दोषमुक्ति दी, क्योंकि उसने अनुबंध अधिनियम की धारा 25(3) और एन.आई. एक्ट की धाराओं के कानूनी प्रभाव को नज़रअंदाज़ किया।
इसलिए अदालत ने आदेश दिया:
- शिकायतकर्ता रतीराम यादव द्वारा दायर पुनरीक्षण याचिकाएँ स्वीकृत की जाती हैं।
- आरोपी गोपाल शर्मा की पुनरीक्षण याचिका खारिज की जाती है।
- निचली अदालत द्वारा सुनाई गई दोषसिद्धि और सज़ा बहाल की जाती है, जिन्हें अपील अदालत ने निरस्त किया था।
- चौथे मामले में अपील अदालत द्वारा दी गई दोषसिद्धि और घटाई गई सज़ा को यथावत रखा गया।
न्यायमूर्ति माथुर ने अपने आदेश में लिखा -
"आरोपी द्वारा जारी किए गए चेक स्वयं में भुगतान का लिखित वादा हैं, जो अनुबंध अधिनियम की धारा 25(3) के तहत कर्ज की प्रवर्तनीयता को पुनर्जीवित करते हैं।"
इस प्रकार, सभी पाँच याचिकाओं का निपटारा किया गया, और अदालत ने यह स्पष्ट सिद्धांत दोहराया कि - यदि देनदार ने भुगतान का स्पष्ट वादा करते हुए चेक जारी किया है, तो समय-सीमा पार कर्ज पर भी एन.आई. एक्ट की धारा 138 लागू होती है।
Title: Ratiram Yadav v Gopal Sharma and other connected petitions