सर्वोच्च न्यायालय ने छत्तीसगढ़ के ग्रामीण इलाके में बाल यौन उत्पीड़न के एक दिल दहला देने वाले मामले की सुनवाई की। न्यायमूर्ति अरविंद कुमार और न्यायमूर्ति एन.वी. अंजारिया की पीठ ने बिना किसी रुकावट के दोनों पक्षों की दलीलें सुनीं और अंततः दोषसिद्धि में कोई बदलाव न करने का फैसला किया, बल्कि परिस्थितियों को ध्यान से देखने के बाद सजा में बदलाव कर दिया।
चर्चा के दौरान पीठ ने कहा,
"सामग्री सुसंगत है; तथापि, सजा पर पुनर्विचार किया जाना चाहिए।" इस टिप्पणी से सूक्ष्म रूप से संकेत मिलता है कि अंतिम फैसले से पहले ही न्यायालय किस दिशा में झुक सकता है।
पृष्ठभूमि
अपीलकर्ता दिनेश कुमार जलधारी को कुनकुरी स्थित विशेष पॉक्सो अदालत ने दोषी ठहराया था और बाद में यह फैसला छत्तीसगढ़ हाई कोर्ट ने भी बरकरार रखा। आरोपी को पॉक्सो कानून की धारा 9(m) सहपठित धारा 10 के तहत सात वर्ष की कठोर कैद की सज़ा दी गई थी यह प्रावधान 12 वर्ष से कम आयु के बच्चे के साथ ‘गंभीर यौन उत्पीड़न’ से जुड़ा है।
मामला 15 अगस्त 2021 की शाम का था। अभियोजन के अनुसार, पीड़िता की मां घर में लगभग 4:30 बजे दाखिल हुई तो उसने आरोपी को अपनी चार वर्षीय बेटी के पैरों के पास बैठे पाया, और वह केवल आधी निक्कर पहने था। बच्ची का अंडरवियर नीचे खिसका हुआ था, फ्रॉक छाती तक उठा हुआ था और बच्ची दर्द से रो रही थी। बाद में मां ने पुलिस को बताया कि बच्ची ने ‘प्राइवेट पार्ट’ में दर्द की शिकायत की।
उसी दिन एफआईआर दर्ज हुई और मेडिकल परीक्षण में बाहरी चोट या खून नहीं मिला, सिर्फ लालिमा दिखी। बचाव पक्ष ने दलील दी कि यह अभियोजन के लिए कमजोर कड़ी है, लेकिन ट्रायल कोर्ट ने माना कि माता-पिता की गवाही की निरंतरता मेडिकल रिपोर्ट से अधिक विश्वसनीय है।
अदालत के अवलोकन
सुप्रीम कोर्ट ने सबूतों का विस्तार से परीक्षण किया, खासकर बच्ची (PW-1) की गवाही से जुड़ी परिस्थितियाँ। जब रिकॉर्ड पढ़कर सुनाया गया तो अदालत में पल भर का सन्नाटा छा गया सिर्फ मास्क हटाने भर से बच्ची डर गई थी, कांपने लगी थी और आरोपी की ओर देखने तक से इनकार कर दिया था। जज को कार्यवाही रोकनी पड़ी, लेकिन बच्ची बाद में लौटने पर भी कुछ बोल नहीं पाई।
अदालत ने टिप्पणी की,
“सिर्फ आरोपी को देखकर बच्ची का इस तरह डर जाना अपने आप में बहुत कुछ कहता है।”
पीठ ने यह भी स्पष्ट किया कि मेडिकल रिपोर्ट हमेशा प्रत्यक्षदर्शी गवाही पर भारी नहीं पड़ती। अदालत ने कहा,
“जब प्रत्यक्षदर्शी बयान सुस्पष्ट और भरोसेमंद हों, तब बाहरी चोट का न होना अभियोजन को कमजोर नहीं करता।”
बचाव पक्ष ने दलील दी कि ‘प्रवेश’ (penetration) का कोई प्रमाण नहीं है। लेकिन अदालत ने इसे खारिज करते हुए कहा कि ‘गंभीर यौन उत्पीड़न’ में प्रवेश होना आवश्यक तत्व नहीं है और कानून ऐसे मामलों को व्यापक रूप से परिभाषित करता है।
निर्णय
अंत में सुप्रीम कोर्ट ने दोषसिद्धि पूरी तरह बरकरार रखी और कहा कि ट्रायल कोर्ट तथा हाई कोर्ट का विश्लेषण “पूरी तरह कानूनी और उचित” था। हालांकि, यह देखते हुए कि आरोपी लगभग चार साल पांच महीने की जेल पहले ही काट चुका है, अदालत ने महसूस किया कि अधिकतम सात वर्ष की सज़ा आवश्यक नहीं है।
इसलिए सुप्रीम कोर्ट ने कठोर कारावास की अवधि घटाकर छह वर्ष कर दी, जबकि ₹6,000 का जुर्माना और जुर्माना न भरने पर एक वर्ष का साधारण कारावास बरकरार रखा।
पीठ ने घोषणा की,
“अपील को केवल सज़ा में संशोधन के सीमित दायरे में आंशिक रूप से स्वीकार किया जाता है।”
Case Title:- Dinesh Kumar Jaldhari vs. State of Chhattisgarh
Case Type:- Criminal Appeal No. 4732 of 2025