हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में कहा कि दादा-दादी को बच्चे की अभिरक्षा पर पिता, जो प्राकृतिक अभिभावक हैं, से बेहतर दावा नहीं हो सकता। यह फैसला न्यायमूर्ति बी.आर. गवई और के. विनोद चंद्रन की पीठ ने सुनाया, जिसमें हाई कोर्ट के उस फैसले को पलट दिया गया जिसमें पिता को बच्चे की अभिरक्षा देने से इनकार कर दिया गया था।
मामला:
यह मामला तब शुरू हुआ जब पिता, विवेक कुमार चतुर्वेदी, ने हैबियस कॉर्पस याचिका दायर कर अपने बच्चे की अभिरक्षा मांगी, जो 2021 में मां की मृत्यु के बाद से नाना-नानी के पास रह रहा था। हाई कोर्ट ने इस आधार पर याचिका खारिज कर दी कि बच्चा अपने नाना-नानी के साथ आरामदायक महसूस कर रहा है और पिता ने दूसरी शादी कर ली है। इस फैसले से असंतुष्ट होकर पिता ने सुप्रीम कोर्ट में अपील दायर की।
"दादा-दादी को पिता, जो प्राकृतिक अभिभावक हैं, से बेहतर अधिकार नहीं हो सकता। इस मामले के तथ्यों और परिस्थितियों में बच्चे का कल्याण पिता को अभिरक्षा देने में ही है।"
हाई कोर्ट ने बच्चे की भावनात्मक स्थिरता और पिता की पुनर्विवाह की स्थिति को प्राथमिकता दी। हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने इसे गलत मानते हुए पिता के प्राकृतिक अधिकार को प्राथमिकता दी।
न्यायमूर्ति चंद्रन ने अपने फैसले में कहा:
"हाई कोर्ट ने बच्चे की अपने पिता के प्रति भावना का मूल्यांकन करने का प्रयास नहीं किया। बच्चा अपने जन्म के बाद 10 साल तक माता-पिता के साथ रहा। पिता, जो प्राकृतिक अभिभावक हैं, शिक्षित और सक्षम हैं। न तो कोई वैवाहिक विवाद है और न ही पिता के खिलाफ किसी प्रकार का आरोप है।"
सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि बच्चे का कल्याण सर्वोपरि है। कोर्ट ने एक चरणबद्ध व्यवस्था दी:
बच्चा शैक्षणिक सत्र के अंत (अप्रैल 2025) तक नाना-नानी के पास रहेगा।
इस दौरान, पिता को हर दूसरे सप्ताहांत पर बच्चे को अपने साथ ले जाने की अनुमति दी गई।
1 मई 2025 को बच्चे की पूरी अभिरक्षा पिता को सौंप दी जाएगी।
इसके बाद, नाना-नानी को भी समय-समय पर बच्चे से मिलने का अधिकार रहेगा।
सुप्रीम कोर्ट ने गौतम कुमार दास बनाम एनसीटी ऑफ दिल्ली (2024) और तेजस्विनी गौड़ बनाम शेखर जगदीश प्रसाद तिवारी (2019) के मामलों का हवाला देते हुए कहा कि प्राकृतिक अभिभावक को प्राथमिकता दी जानी चाहिए, जब तक कि इसके विपरीत कोई ठोस साक्ष्य न हो।
मामले का शीर्षक: विवेक कुमार चतुर्वेदी बनाम उत्तर प्रदेश राज्य