इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने विवाह-बलात्कार मामले में व्यक्ति को बरी किया, कहा 16 वर्ष से अधिक उम्र की लड़की की सहमति थी और नया कानून पूर्वव्यापी रूप से लागू नहीं हो सकता

By Shivam Y. • October 15, 2025

इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने 2005 के विवाह-बलात्कार मामले में इस्लाम उर्फ ​​पलटू को बरी कर दिया, कहा कि लड़की 16 साल से ऊपर की थी और संबंध सहमति से थे। - इस्लाम उर्फ ​​पलटू बनाम उत्तर प्रदेश राज्य

एक अहम फैसले में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने 19 सितंबर 2025 को एक ऐसे व्यक्ति को बरी कर दिया जिसे करीब 20 साल पहले 16 वर्षीय लड़की से शादी और बलात्कार के आरोप में दोषी ठहराया गया था। न्यायमूर्ति अनिल कुमार-X ने इस्लाम उर्फ पलटू की सजा रद्द करते हुए कहा कि घटना 2005 की है और बाद में हुए कानूनी संशोधन या सुप्रीम कोर्ट के Independent Thought (2017) फैसले को पिछली तारीख से लागू नहीं किया जा सकता।

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अदालत ने कहा-

"चूंकि पीड़िता की उम्र 16 वर्ष से अधिक थी और शारीरिक संबंध विवाह के बाद बने, इसलिए इसे बलात्कार नहीं माना जा सकता"

मामले की पृष्ठभूमि

यह मामला 25 अगस्त 2005 का है। फज़ल अहमद ने शिकायत दी कि उनकी 16 वर्षीय बेटी शौच के लिए बाहर गई थी जब आरोपी इस्लाम और दो अन्य उसे बहला-फुसलाकर ले गए। लड़की एक महीने बाद मिली। उसने बताया कि आरोपी पहले उसे कलपी ले गया, जहां दोनों ने निकाह किया, फिर भोपाल चले गए और लगभग एक महीने तक साथ रहे।

ट्रायल कोर्ट ने इस्लाम को अपहरण (धारा 363), जबर्दस्ती विवाह हेतु अपहरण (धारा 366) और बलात्कार (धारा 376) में दोषी मानते हुए सात साल की सजा सुनाई थी।

उच्च न्यायालय में पक्षों की दलीलें

अपीलकर्ता के वकील मयंक भूषण ने कहा कि लड़की ने अपनी मर्जी से घर छोड़ा और आरोपी से विवाह किया।

"यह विवाह मुस्लिम व्यक्तिगत कानून के तहत वैध था, और डॉक्टर की रिपोर्ट के अनुसार लड़की 18 वर्ष से अधिक भी हो सकती थी," उन्होंने तर्क दिया।

उन्होंने कहा,

"अगर कोई लड़की वास्तव में अगवा की गई होती, तो वह इतने दिनों तक ट्रक, बस और किराए के मकान में दूसरों के बीच रहते हुए भी मदद न मांगती-यह असंभव है।"

वहीं, राज्य पक्ष ने कहा कि चूंकि लड़की 18 वर्ष से कम थी, उसकी सहमति कानूनी रूप से अमान्य है।

"जो कोई भी नाबालिग लड़की को उसके अभिभावक की देखरेख से बाहर ले जाता है, वह स्वतः अपराध करता है," सरकारी अधिवक्ता ने कहा।

अदालत की टिप्पणियाँ

न्यायालय ने धारा 361 आईपीसी में "ले जाने" (taking) और "फुसलाने" (enticing) के अंतर पर विस्तार से चर्चा की। न्यायमूर्ति अनिल कुमार-X ने सुप्रीम कोर्ट के S. Varadarajan बनाम स्टेट ऑफ मद्रास (1965) मामले का हवाला देते हुए कहा-

“पीड़िता का यह कहना कि आरोपी ने उसे साथ चलने को कहा, मात्र इतना कहना ‘प्रलोभन’ या ‘जबरदस्ती’ सिद्ध नहीं करता। उसके बयान से स्पष्ट है कि वह सहमति से गई थी।”

जज ने कहा कि न तो लड़की और न ही उसके माता-पिता ने कोई ठोस तथ्य बताया जिससे यह साबित हो कि आरोपी ने उसे बहकाया या जबरन ले गया।

जहां तक बलात्कार के आरोप की बात है, अदालत ने माना कि शारीरिक संबंध विवाह के बाद बने थे और निकाहनामा (विवाह प्रमाणपत्र) अदालत में पेश किया गया था, जिसे किसी पक्ष ने चुनौती नहीं दी।

अदालत ने यह भी माना कि मुस्लिम कानून में “यौवन” (puberty) को विवाह की वैधता का आधार माना जाता है, जो आमतौर पर 15 वर्ष की उम्र मानी जाती है।

हालांकि, अदालत ने बाल विवाह निषेध अधिनियम, 2006 और सुप्रीम कोर्ट के Independent Thought (2017) फैसले का उल्लेख किया, जिसमें कहा गया था कि 18 वर्ष से कम उम्र की पत्नी के साथ यौन संबंध को बलात्कार माना जाएगा।

परंतु न्यायमूर्ति अनिल कुमार-X ने स्पष्ट किया-

“Independent Thought का प्रभाव भविष्य के मामलों पर है, जबकि यह घटना 2005 की है। अतः उस समय के कानून के अनुसार इसे बलात्कार नहीं कहा जा सकता।”

अंतिम फैसला

सभी साक्ष्यों और कानून के विश्लेषण के बाद अदालत ने कहा कि अभियोजन पक्ष यह साबित करने में नाकाम रहा कि लड़की को आरोपी ने बहकाकर या जबरन ले गया था।

“कोई ऐसा सबूत नहीं है जिससे यह सिद्ध हो कि पीड़िता को आरोपी ने फुसलाया या अपहरण किया। बयान से स्पष्ट है कि दोनों ने अपनी मर्जी से विवाह किया और साथ रहे,” अदालत ने कहा।

नतीजतन, अदालत ने आरोपी को धारा 363, 366 और 376 आईपीसी के तहत लगे सभी आरोपों से बरी कर दिया।

साथ ही अदालत ने उसके जमानत बॉन्ड रद्द करते हुए आदेश दिया कि वह धारा 437-A दंड प्रक्रिया संहिता के तहत नया बॉन्ड दो महीने के भीतर ट्रायल कोर्ट में जमा करे।

करीब 20 साल पुराने इस मामले में अदालत का फैसला शांत न्यायालय में पढ़ा गया - एक ऐसा निर्णय जो कानून के बदलते स्वरूप और समय की सीमा दोनों को सामने लाता है।

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