भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने 7 अक्टूबर 2025 को एक विस्तृत फैसले में कर्नाटक उच्च न्यायालय का वह आदेश रद्द कर दिया, जिसमें गुलबर्गा की कृषि भूमि पर एक कथित मौखिक हिबा (उपहार) को मान्यता दी गई थी। न्यायमूर्ति अहसानुद्दीन अमानुल्लाह और न्यायमूर्ति एस.वी.एन. भट्टी की खंडपीठ ने कहा कि वादी सैयदा अरीफा परवीन द्वारा किया गया दावा कानूनी रूप से टिकाऊ नहीं है और उनका दीवानी मुकदमा सीमाबद्धता (limitation) की अवधि से बाहर था।
पृष्ठभूमि
यह विवाद गुलबर्गा जिले के कुसनूर गांव में 24 एकड़ और 28 गुंटे कृषि भूमि से संबंधित है। यह ज़मीन मूल रूप से खादिजाबी के नाम पर थी, जिनके बारे में परवीन का कहना था कि उन्होंने 1988 में 10 एकड़ भूमि उन्हें मौखिक रूप से हिबा में दी थी और अगले वर्ष उसका एक ज्ञापन भी तैयार किया था।
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खादिजाबी की 1990 में मृत्यु के बाद उनके पति अब्दुल बसीत का नाम भूमि अभिलेखों में दर्ज किया गया। 1995 में अब्दुल बसीत ने पूरी ज़मीन पाँच पंजीकृत बिक्री विलेखों के ज़रिए प्रतिवादियों-धर्मराव शरणप्पा शबाड़ी और अन्य-को बेच दी। परवीन ने खुद को खादिजाबी की एकमात्र पुत्री बताते हुए 2013 में उन बिक्री विलेखों को चुनौती दी, धोखाधड़ी का आरोप लगाया और स्वामित्व की घोषणा की मांग की।
ट्रायल कोर्ट ने परवीन के पक्ष में आंशिक निर्णय देते हुए उन्हें 18 एकड़ 21 गुंटे भूमि की मालकिन माना। लेकिन कर्नाटक उच्च न्यायालय ने उससे आगे बढ़ते हुए पूरे 24 एकड़ क्षेत्र पर उनके स्वामित्व को मान्यता दे दी, जिसमें वह 10 एकड़ भी शामिल थी जो कथित तौर पर हिबा में दी गई थी।
न्यायालय की टिप्पणियाँ
सुप्रीम कोर्ट ने दोनों निचली अदालतों के निष्कर्षों में गंभीर त्रुटियाँ पाईं। न्यायमूर्ति भट्टी ने अपने निर्णय में कहा कि उच्च न्यायालय ने “वादिनी द्वारा कोई क्रॉस-अपील दायर न होने के बावजूद ट्रायल कोर्ट के डिक्री को संशोधित कर अपने अधिकार क्षेत्र से अधिक कार्य किया।” अदालत ने पाया कि उच्च न्यायालय द्वारा मौखिक उपहार को मान्यता देना कानून और साक्ष्य दोनों के विपरीत था।
वंशावली के प्रश्न पर, न्यायालय ने कहा कि परवीन यह साबित नहीं कर सकीं कि वे वास्तव में खादिजाबी और अब्दुल बसीत की पुत्री हैं। खंडपीठ ने कहा कि रिश्तेदारों की मौखिक गवाही को “प्रासंगिकता, ग्राह्यता और विश्वसनीयता की तीन कसौटियों” पर परखे बिना स्वीकार नहीं किया जा सकता। इस दावे को सिद्ध करने के लिए कोई दस्तावेज़-जैसे जन्म प्रमाणपत्र या स्कूल का रिकॉर्ड-प्रस्तुत नहीं किया गया।
मौखिक हिबा के प्रश्न पर न्यायालय ने दोहराया कि मुस्लिम कानून के तहत वैध हिबा के लिए कब्जे का हस्तांतरण अनिवार्य शर्त है। “बिना कब्जे के प्रमाण वाला उपहार नहीं टिक सकता। यह परोपकार का कार्य है, न कि गुप्त लेनदेन,” खंडपीठ ने कहा। अदालत ने देखा कि 1995 से भूमि अभिलेख लगातार प्रतिवादियों के नाम पर हैं और वादी ने “दो दशकों से अधिक समय तक पूर्ण चुप्पी साधे रखी।”
इसके अतिरिक्त, अदालत ने माना कि 2013 में दायर किया गया मुकदमा सीमाबद्धता से परे था। घटनाओं के बीच लंबे अंतराल का हवाला देते हुए कहा गया कि परवीन को बिक्री विलेखों की “रचनात्मक जानकारी (constructive notice)” थी और उन्हें पहले कार्यवाही करनी चाहिए थी। “23 वर्षों तक की निष्क्रियता को किसी निष्कपट दर्शक का व्यवहार नहीं कहा जा सकता,” खंडपीठ ने टिप्पणी की।
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निर्णय
न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि न तो मौखिक हिबा और न ही उत्तराधिकार का दावा सिद्ध हुआ। सुप्रीम कोर्ट ने धर्मराव शरणप्पा शबाड़ी और अन्य द्वारा दायर अपील स्वीकार करते हुए कर्नाटक उच्च न्यायालय का 2022 का निर्णय रद्द कर दिया और परवीन का 2013 का दीवानी मुकदमा पूरी तरह खारिज कर दिया।
“कब्जे या अधिकारों के समय पर दावा, दोनों का अभाव था,” अदालत ने कहा, यह जोड़ते हुए कि 1995 के पंजीकृत बिक्री विलेख वैध हैं। इस निर्णय के साथ तीन दशक से लंबा चला यह भूमि विवाद आखिरकार समाप्त हो गया।
Case: Dharmrao Sharanappa Shabadi & Others v. Syeda Arifa Parveen
Case Type: Civil Appeal (arising from Karnataka High Court judgment dated July 6, 2022)
Citation: 2025 INSC 1187
Date of Judgment: October 7, 2025