एक महत्वपूर्ण फैसले में, जिसने हिंदू उत्तराधिकार कानून की सीमाओं को दोबारा परिभाषित किया, छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय बिलासपुर ने यह स्पष्ट किया है कि अगर किसी पिता की मृत्यु हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 के लागू होने से पहले हुई है, तो विवाहित बेटी उस संपत्ति पर अधिकार का दावा नहीं कर सकती। अदालत ने पुनः पुष्टि की कि ऐसे मामलों में उत्तराधिकार मिताक्षरा कानून के तहत तय होगा, न कि 1956 के बाद किए गए संशोधनों के तहत, जिन्होंने बेटियों को समान अधिकार दिए थे।
न्यायमूर्ति नरेंद्र कुमार व्यास ने स्म्ट. रगमनिया (मृत) द्वारा विधिक उत्तराधिकारी करीमन दास बनाम जगमेत एवं अन्य में फैसला सुनाते हुए कहा कि -
"जिस हिंदू पुरुष की मृत्यु 1956 से पहले हुई, उसकी संपत्ति पर उत्तराधिकार का अधिकार केवल पुत्र को होगा, मिताक्षरा कानून के अनुसार।"
पृष्ठभूमि
विवाद की शुरुआत सुरगुजा जिले के गांव पूहपुत्रा से हुई, जहाँ स्म्ट. रगमनिया ने वर्ष 2005 में अपने पैतृक भूमि पर स्वामित्व और बंटवारे की घोषणा के लिए दीवानी वाद दायर किया था। उनका दावा था कि उनके पिता सुधिन और उनके भाई बुधाऊ संयुक्त रूप से भूमि के स्वामी थे और उन्हें जन्म से इस संपत्ति में हिस्सा प्राप्त था।
उनके भाई बैगदास ने पिता की मृत्यु के बाद अपने नाम पर भूमि का नामांतरण करा लिया और आगे चलकर अपनी बेटी को हिस्सा दे दिया। जब रगमनिया ने इस पर आपत्ति दर्ज कराई, तो तहसीलदार ने वर्ष 2003 में उनकी अर्जी यह कहते हुए खारिज कर दी कि विवाह के बाद बेटी को संपत्ति में अधिकार नहीं है।
इसके बाद उन्होंने दीवानी न्यायालय का दरवाजा खटखटाया, जिसने 2008 में उनका दावा खारिज कर दिया। अपीलीय न्यायालय ने 2014 में इस आदेश को बरकरार रखा। अंततः, उन्होंने दीवानी प्रक्रिया संहिता की धारा 100 के तहत उच्च न्यायालय में द्वितीय अपील दायर की।
अदालत के अवलोकन
न्यायमूर्ति व्यास ने यह परखा कि क्या निचली अदालतों ने 2005 में संशोधित हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम के प्रावधानों को नजरअंदाज करते हुए बेटी के अधिकार से इनकार कर गलती की।
परंतु, अदालत के समक्ष यह तथ्य स्पष्ट था कि सुधिन की मृत्यु 1950–51 के आसपास हुई थी, यानी अधिनियम के लागू होने से कई वर्ष पूर्व। न्यायाधीश ने कहा कि यह “पुराने हिंदू कानून के तहत उत्तराधिकार की शुरुआत” थी, और इस कारण मिताक्षरा प्रणाली लागू होगी।
“वादी के पिता की मृत्यु हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 के लागू होने से बहुत पहले हुई थी। इसलिए, उत्तराधिकार पुरानी हिंदू विधि के तहत खुला और पक्षकार मिताक्षरा सिद्धांतों से शासित हैं,” अदालत ने कहा।
अदालत ने सर्वोच्च न्यायालय के कई महत्वपूर्ण निर्णयों पर भरोसा किया, जिनमें अर्शनूर सिंह बनाम हरपाल कौर (2020) और अरुणाचल गौंडर बनाम पोनुसामी (2022) शामिल हैं। इन फैसलों में यह दोहराया गया कि 1956 से पहले के उत्तराधिकार पारंपरिक हिंदू कानून के अधीन रहेंगे-जहाँ पुत्र के जीवित रहने की स्थिति में बेटी का कोई दावा नहीं बनता था।
न्यायमूर्ति व्यास ने समझाया कि मिताक्षरा कानून के अंतर्गत पिता से प्राप्त संपत्ति संयुक्त पारिवारिक संपत्ति (कॉपार्सनरी) मानी जाती है, जिसमें पुत्र, पौत्र और प्रपौत्र को जन्म से ही अधिकार प्राप्त होता है। बेटी को यह अधिकार 1956 के अधिनियम और 2005 के संशोधन से पहले नहीं था।
अदालत ने घुरपतारी बनाम संपती (1976) के इलाहाबाद उच्च न्यायालय के पूर्ण पीठ निर्णय का हवाला भी दिया, जिसमें प्राचीन हिंदू ग्रंथों के आधार पर कहा गया था कि विधवा या पुत्री केवल पुरुष उत्तराधिकारी के अभाव में ही संपत्ति प्राप्त कर सकती है।
“जब कोई हिंदू पुरुष, जो मिताक्षरा कानून से शासित है, 1956 से पहले मरता है, तो उसकी व्यक्तिगत संपत्ति पूरी तरह उसके पुत्र को हस्तांतरित होती है। किसी पुत्र के अभाव में ही बेटी दावा कर सकती है,” निर्णय में स्पष्ट किया गया।
निर्णय
अदालत ने यह ठहराया कि हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 और उसके बाद के संशोधन पूर्व प्रभाव से लागू नहीं होते। इसलिए निचली अदालतों के निष्कर्ष सही थे। न्यायालय ने माना कि सुधिन की संपत्ति विधिसम्मत रूप से उनके पुत्र बैगदास को हस्तांतरित हुई और उन्होंने आगे इसे अपने उत्तराधिकारियों - प्रतिवादी जगमेत और बुधियारो - को विधिपूर्वक दिया।
अदालत ने कहा कि राजस्व अधिकारियों द्वारा प्रतिवादियों के नाम पर संपत्ति का नामांतरण करने में कोई त्रुटि नहीं हुई।
“निचली अदालतों के निष्कर्षों में हस्तक्षेप का कोई कारण नहीं है। संपत्ति विभाज्य नहीं है,” न्यायमूर्ति व्यास ने कहा और अपील खारिज कर दी।
अदालत ने खर्च के संबंध में कोई आदेश नहीं दिया।
Case Title: Smt. Ragmania (died) through LRs Kariman Das vs. Jagmet & Others
Case Type & Number: Second Appeal (SA) No. 178 of 2014
Judgment Delivered On: 13 October 2025