एक विस्तृत फैसले में, जिसने यह स्पष्ट किया कि अदालतों को ‘समय-सीमा’ के मामलों में कैसे आगे बढ़ना चाहिए, सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट का आदेश रद्द कर दिया, जिसमें करम सिंह का सिविल मुकदमा “समय-सीमा से बाहर” बताकर खारिज कर दिया गया था।
न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा और न्यायमूर्ति जे.बी. पारडीवाला की पीठ ने कहा कि हाईकोर्ट ने तथ्यों का समुचित परीक्षण किए बिना ही वादपत्र (plaint) को प्रारंभिक स्तर पर खारिज कर दिया, जो एक गंभीर त्रुटि थी।
पृष्ठभूमि
यह मामला लगभग एक सदी पुराना है और रोनक सिंह नामक व्यक्ति की संपत्ति से जुड़ा है, जिनकी मृत्यु 1924 में बिना वसीयत (intestate) के हुई थी। उनकी विधवा करतार कौर बाद में परिवारिक विवाद का केंद्र बन गईं, जब उन्होंने कथित रूप से भूमि किसी अन्य व्यक्ति को उपहार (gift) में दे दी। इसके बाद कई दशक तक मुकदमे चलते रहे - पहले उस उपहार को चुनौती देने के लिए, और फिर उस वसीयत को लेकर, जो कहा गया कि करतार कौर ने 1976 में बनाई थी।
वर्षों तक चले म्यूटेशन (राजस्व रिकॉर्ड) और अन्य कार्यवाहियों के बाद 2017 में प्रक्रिया पूरी हुई। इसके बाद करम सिंह और अन्य ने 2019 में एक सिविल वाद दायर किया, यह दावा करते हुए कि प्रतिवादियों द्वारा प्रस्तुत वसीयत धोखाधड़ीपूर्ण है और वे, स्वाभाविक उत्तराधिकारी के रूप में, वास्तविक मालिक हैं।
दूसरी ओर, प्रतिवादियों ने सिविल प्रक्रिया संहिता (CPC) के ऑर्डर 7 रूल 11(d) के तहत एक आवेदन दाखिल किया, यह कहते हुए कि मुकदमा समय-सीमा से बाहर है क्योंकि वादी 1983 से ही वसीयत के अस्तित्व से अवगत थे।
ट्रायल कोर्ट ने यह तर्क अस्वीकार करते हुए कहा कि ‘सीमाबंदी’ (limitation) कानून और तथ्य दोनों का मिश्रित प्रश्न है, जिसे साक्ष्यों के बाद ही तय किया जा सकता है। लेकिन हाईकोर्ट ने इसके विपरीत निर्णय देते हुए मुकदमा पूरी तरह खारिज कर दिया।
अदालत का अवलोकन
सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट की इस प्रक्रिया पर तीखी टिप्पणी की। पीठ ने कहा, “यह तय करते समय कि कोई वाद कानून से प्रतिबंधित है या नहीं, केवल वादपत्र को देखा जाना चाहिए, न कि प्रतिवादी के कथन को।”
न्यायालय ने कहा कि हाईकोर्ट ने कई महत्वपूर्ण तथ्यों को नजरअंदाज कर दिया, विशेषकर यह कि म्यूटेशन की कार्यवाही 2017 में समाप्त हुई थी और वाद तीन वर्ष के भीतर ही दायर किया गया था।
पीठ ने स्पष्ट किया कि वाद का मुख्य राहत ‘स्वामित्व के आधार पर कब्जे’ की मांग थी, न कि केवल ‘घोषणा’ की - और ऐसे मामलों में सीमाबंदी अधिनियम की धारा 65 के तहत 12 वर्ष की अवधि लागू होती है। न्यायालय ने कहा, “जहां वाद स्वामित्व के आधार पर कब्जे के लिए दायर किया गया हो, उसे केवल समय-सीमा के आधार पर प्रारंभिक स्तर पर खारिज नहीं किया जा सकता।”
अदालत ने यह भी कहा कि म्यूटेशन प्रविष्टियाँ केवल राजस्व वसूली के लिए होती हैं, उनसे स्वामित्व का अधिकार तय नहीं होता। इंदिरा बनाम अरुमुगम और एन. थाजुद्दीन बनाम तमिलनाडु खादी एंड विलेज इंडस्ट्रीज बोर्ड जैसे फैसलों का हवाला देते हुए न्यायालय ने दोहराया कि संपत्ति का अधिकार तब तक बना रहता है जब तक कब्जा वैध रूप से प्रतिकूल (adverse possession) सिद्ध नहीं हो जाता - और यह बात साक्ष्यों से साबित करनी पड़ती है।
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निर्णय
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि हाईकोर्ट ने वादपत्र को “समग्र रूप से देखने में विफल रहा” और “सिर्फ वसीयत की पुरानी तारीख से प्रभावित” हुआ। न्यायमूर्ति मिश्रा ने लिखा, “हाईकोर्ट का यह निष्कर्ष कि मुकदमा समय-सीमा से बाहर था, विधि की दृष्टि से अस्थिर है।”
अदालत ने करम सिंह द्वारा दायर अपीलों को स्वीकार करते हुए 27 जनवरी और 4 जुलाई 2022 के दोनों हाईकोर्ट आदेशों को रद्द कर दिया और ट्रायल कोर्ट के उस आदेश को बहाल किया जिसमें वादपत्र को खारिज करने से इनकार किया गया था।
ट्रायल कोर्ट को निर्देश दिया गया कि वह मुकदमे की सुनवाई जारी रखे और इसे विधि के अनुसार उचित निष्कर्ष तक पहुंचाए।
पीठ ने यह भी स्पष्ट किया कि उसके अवलोकन केवल इस बात तक सीमित हैं कि क्या वादपत्र ऑर्डर 7 रूल 11 के तहत खारिज किया जा सकता था, और “इन टिप्पणियों का मामले के गुण-दोष पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा।”
Case Title: Karam Singh v. Amarjit Singh & Others
Citation: 2025 INSC 1238
Case Type: Civil Appeals (arising out of SLP (C) Nos. 3560–3561 of 2023)
Date of Judgment: October 15, 2025