सुप्रीम कोर्ट ने एचडीएफसी बैंक के एक अधिकारी के खिलाफ दर्ज आपराधिक मामला खारिज कर दिया है। कोर्ट ने यह निर्णय दिया कि नीलामी के समय वह अधिकृत अधिकारी नहीं थे, और पूरे नीलामी प्रक्रिया में उनकी कोई भूमिका नहीं थी। कोर्ट ने कहा कि इस मामले को जारी रखना कानून की प्रक्रिया का दुरुपयोग होगा।
यह मामला धोखाधड़ी और जालसाजी के आरोपों पर आधारित था, जो एक ऐसी संपत्ति की नीलामी से जुड़ा था जिसे पहले से तमिलनाडु हाउसिंग बोर्ड द्वारा अधिग्रहित किया जा चुका था। शिकायतकर्ता ने आरोप लगाया कि एचडीएफसी बैंक के अधिकारियों ने इस तथ्य को छुपाया। साथ ही, नीलामी खरीददार ने एचडीएफसी लिमिटेड के चेयरमैन, मैनेजिंग डायरेक्टर और सीनियर मैनेजर के खिलाफ उपभोक्ता शिकायत भी दर्ज की थी।
आरोपी अधिकारी ने मद्रास हाईकोर्ट में दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 482 के तहत आपराधिक कार्यवाही रद्द करने की याचिका दाखिल की थी, जिसे कोर्ट ने खारिज कर दिया। इसके बाद उन्होंने सुप्रीम कोर्ट का रुख किया।
अपीलकर्ता ने अपने बचाव में कहा कि वर्ष 2012 में जब नीलामी हुई थी, तब वह केवल असिस्टेंट मैनेजर थे। उन्होंने बताया कि केवल मैनेजर या उससे ऊपर के अधिकारी ही सिक्योरिटी इंटरेस्ट (प्रवर्तन) नियम, 2002 के तहत “अधिकृत अधिकारी” माने जाते हैं।
“सारफेसी अधिनियम के तहत, सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक में मुख्य प्रबंधक या उसके समकक्ष अधिकारी ही अधिकृत अधिकारी माने जाते हैं।”
उन्होंने यह भी बताया कि उनके खिलाफ दायर उपभोक्ता शिकायत को जिला उपभोक्ता विवाद निवारण आयोग पहले ही खारिज कर चुका है। आयोग ने माना कि खरीददार को नीलामी से पहले संपत्ति की स्थिति की जानकारी थी, जो उसने खुद दस्तावेज़ में हस्ताक्षर कर स्वीकार की थी।
अधिवक्ता ने यह भी तर्क दिया कि SARFAESI अधिनियम की धारा 32 के अनुसार, अच्छे विश्वास में किए गए कार्यों के लिए अधिकारी कानूनी सुरक्षा के पात्र होते हैं।
वहीं, पुलिस का कहना था कि खरीददार को इस अधिग्रहण की जानकारी केवल उस समय मिली जब वह संपत्ति का पंजीकरण कराने गई। उन्होंने यह भी कहा कि संपत्ति की स्थिति छुपाना बुरे इरादे को दर्शाता है, और इसलिए अधिकारी को धारा 32 के तहत संरक्षण नहीं मिलना चाहिए।
हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने पाया कि अपीलकर्ता का नीलामी प्रक्रिया में कोई प्रत्यक्ष रोल नहीं था और वह उस समय अधिकृत अधिकारी भी नहीं थे।
“यह स्पष्ट है कि बिक्री प्रमाणपत्र अपीलकर्ता के पूर्वाधिकारी द्वारा जारी किया गया था... अपीलकर्ता की कोई प्रत्यक्ष भागीदारी नहीं थी,” यह कहा न्यायमूर्ति विक्रम नाथ और न्यायमूर्ति संदीप मेहता की पीठ ने।
कोर्ट ने यह भी बताया कि अपीलकर्ता नवंबर 2014 में मैनेजर बने, जबकि नीलामी इससे पहले हो चुकी थी।
“एफआईआर से संबंधित लेन-देन में अपीलकर्ता की कोई भूमिका नहीं थी... वह न तो उस समय अधिकृत अधिकारी थे, न ही प्रक्रिया में शामिल थे, इसलिए उनके खिलाफ लगाए गए आरोप निराधार हैं,” कोर्ट ने कहा।
कोर्ट ने इसे “कानून की प्रक्रिया का दुरुपयोग” और “न्याय में चूक” करार देते हुए आपराधिक कार्यवाही रद्द कर दी।
मामले का शीर्षक: सिवाकुमार बनाम इंस्पेक्टर ऑफ पुलिस व अन्य
मामला संख्या: SLP(Crl) Nos. 5815-5816 of 2023