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सुप्रीम कोर्ट ने कहा– भिखारियों के आश्रय घरों में गरिमा सुनिश्चित हो, दिल्ली में हैजा मौतों पर कड़ी टिप्पणी

Vivek G.

सुप्रीम कोर्ट ने कहा– भिखारियों के आश्रय घरों में गरिमा सुनिश्चित हो, दिल्ली में हैजा मौतों पर कड़ी टिप्पणी

एक ऐतिहासिक फ़ैसले में भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने दिल्ली के भिखारियों के आश्रय गृहों की हालत पर सख़्त टिप्पणी की, इन्हें “अर्ध-कारागार” बताते हुए जो मानव गरिमा के योग्य नहीं हैं। यह मामला वर्ष 2000 में लम्पुर भिखारी गृह में फैले हैजे के प्रकोप से जुड़ा है, जिसमें कई कैदियों की मौत हुई थी। इस हफ्ते अदालत ने इसका अंतिम निपटारा किया।

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पृष्ठभूमि

यह मामला तब शुरू हुआ जब एम.एस. पैटर नामक एक चिंतित नागरिक ने जनहित याचिका दायर की। मई 2000 में समाचार पत्रों ने चौंकाने वाली रिपोर्टें प्रकाशित की थीं कि लम्पुर (नरेला) में दर्जनों भिखारी हैजा और गैस्ट्रोएंटेराइटिस से पीड़ित हो गए, और कम से कम छह की पुष्टि हुई मौतें हुईं। सुनवाई के दौरान दूषित पानी, सत्ता का दुरुपयोग और बर्बर व्यवहार-जिनमें कैदियों को कुत्तों से डराने जैसी घटनाएँ- सामने आईं।

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दिल्ली उच्च न्यायालय ने पहले विभागीय जांच के आदेश दिए थे, लेकिन याचिकाकर्ता का आरोप था कि अधिकारियों ने गुमराह करने वाली रिपोर्टें पेश कीं और जो सुधारों का वादा किया गया था, वे कभी सही से लागू नहीं हुए। जब अंततः उच्च न्यायालय ने बिना कारण बताए याचिका खारिज कर दी, तब पैटर ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया।

न्यायालय की टिप्पणियाँ

न्यायमूर्ति आर. महादेवन ने पीठ की ओर से लिखते हुए सिर्फ इस मामले पर नहीं, बल्कि भिखारियों के आश्रय गृहों की अवधारणा पर ही सवाल उठाया। अदालत ने कहा, “भिखारियों के आश्रय गृहों को अर्ध-दंडात्मक केंद्र नहीं माना जा सकता। इनकी भूमिका सुधारात्मक होनी चाहिए, न कि दंडात्मक-ये ऐसे स्थान हों जहाँ स्वस्थ्य लाभ, कौशल निर्माण और समाज में पुनर्वास सुनिश्चित हो।”

पीठ ने औपनिवेशिक युग से चली आ रही आवारा क़ानूनों की मानसिकता का हवाला देते हुए कहा कि गरीबों के प्रति दंडात्मक सोच आज भी भारत में जारी है। अदालत ने याद दिलाया कि संविधान का अनुच्छेद 21 केवल जीवित रहने की गारंटी नहीं देता, बल्कि गरिमा, स्वास्थ्य और मानवीय व्यवहार का अधिकार भी सुनिश्चित करता है।

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“गरीबों के प्रति राज्य की ज़िम्मेदारी सकारात्मक और अनिवार्य है,” न्यायालय ने कहा, यह जोड़ते हुए कि ऐसे गृह “संवैधानिक न्यास हैं, न कि कोई दानपुण्य।”

अदालत ने यह भी रेखांकित किया कि पानी में मल-मूत्र का मिल जाना, खराब भोजन, स्टाफ की अनुपस्थिति और स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी जैसी गंभीर खामियाँ वर्षों की रिपोर्टों में सामने आईं, जबकि सुधार की रफ़्तार बेहद धीमी रही।

निर्णय

अंततः सर्वोच्च न्यायालय ने कड़े शब्दों में जवाबदेही तय करने की आवश्यकता पर बल दिया। अदालत ने दर्ज किया कि कुछ अधिकारियों को विभागीय कार्यवाही के तहत दंडित किया जा चुका है, लेकिन सुधार उससे कहीं अधिक गहराई से होने चाहिए। न्यायालय ने आदेश दिया कि भिखारियों के गृहों को पुनर्वास केंद्र की तरह चलाया जाए, जहाँ उचित भोजन, स्वास्थ्य देखभाल, व्यावसायिक प्रशिक्षण और गरिमामय जीवन मिले।

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पीठ ने निष्कर्ष में कहा, “मानवीय परिस्थितियों को सुनिश्चित करने में विफलता मात्र कुप्रशासन नहीं है, यह संविधान के अनुच्छेद 21 का उल्लंघन है।” इसके साथ ही अपील का निपटारा कर दिया गया और यह सिद्धांत स्थापित हो गया कि भारत के सबसे वंचित लोगों को केवल आश्रय ही नहीं, बल्कि गरिमा भी मिलनी चाहिए।

मामला: एम.एस. पैटर बनाम राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली राज्य एवं अन्य

उद्धरण: 2025 आईएनएससी 1115

अपील: सिविल अपील (विशेष अनुमति याचिका (सी) संख्या 878/2004 से उत्पन्न)

निर्णय की तिथि: 2025

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