रेल यात्रियों के अधिकारों की रक्षा करते हुए, भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने बुधवार को एक महत्वपूर्ण निर्णय में मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय और रेलवे क्लेम्स ट्रिब्यूनल के आदेशों को रद्द करते हुए एक विधवा और उसके नाबालिग बेटे को मुआवज़ा देने का निर्देश दिया। यह मामला 2017 में इंदौर और उज्जैन के बीच हुई एक ट्रेन दुर्घटना से जुड़ा था। कोर्ट ने कहा कि जब यह प्रमाणित हो जाए कि यात्री के नाम पर टिकट जारी हुआ था, तो अब यह ज़िम्मेदारी रेलवे की होती है कि वह साबित करे कि मृतक वास्तविक यात्री नहीं था।
पृष्ठभूमि
यह मामला संजेश कुमार याग्निक की मृत्यु से जुड़ा है, जिन्होंने 19 मई 2017 को इंदौर स्टेशन से उज्जैन जाने के लिए रनथंभौर एक्सप्रेस की दूसरी श्रेणी की टिकट खरीदी थी। दावा करने वालों के अनुसार, ट्रेन में भीड़ होने के कारण वे धक्का लगने से पोल नंबर 15/21 के पास गिर गए और सिर में गंभीर चोट लगने से उनकी मृत्यु हो गई। नरवर थाने में धारा 174 सीआरपीसी के तहत पंचनामा दर्ज हुआ, जिसमें मौत को आकस्मिक माना गया।
मृतक की पत्नी रजनी और उनके नाबालिग बेटे ने रेलवे क्लेम्स ट्रिब्यूनल अधिनियम, 1987 की धारा 16 के तहत ₹12 लाख का मुआवज़ा मांगा था। लेकिन ट्रिब्यूनल और मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय दोनों ने दावा यह कहते हुए खारिज कर दिया कि मृतक की वास्तविक यात्रा साबित नहीं हुई, क्योंकि उसके पास से टिकट नहीं मिला और पेश की गई टिकट की फोटोकॉपी “संदिग्ध” थी।
न्यायालय की टिप्पणियाँ
सुप्रीम कोर्ट की पीठ, जिसमें न्यायमूर्ति अरविंद कुमार और न्यायमूर्ति एन.वी. अंजारिया शामिल थे, ने कहा कि निचली अदालतों ने अत्यधिक तकनीकी दृष्टिकोण अपनाया, जो रेलवे अधिनियम, 1989 की कल्याणकारी भावना के अनुरूप नहीं है। अदालत ने कहा,
“मात्र टिकट का न मिलना यह साबित नहीं करता कि मृतक वास्तविक यात्री नहीं था।” इस दौरान अदालत ने यूनियन ऑफ इंडिया बनाम रीना देवी और डोली रानी साहा बनाम यूनियन ऑफ इंडिया जैसे अपने पिछले फैसलों का उल्लेख किया।
न्यायमूर्ति कुमार ने कहा कि 23 फरवरी 2019 की डिविजनल रेलवे मैनेजर (डीआरएम) रिपोर्ट में यह प्रमाणित किया गया था कि टिकट नंबर L10274210 इंदौर से उज्जैन के लिए जारी की गई थी। यह टिकट इंदौर के चीफ बुकिंग सुपरवाइज़र द्वारा सत्यापित की गई थी और पुलिस ने इसे रेलवे अधिकारियों को भेजा था। कोर्ट ने कहा,
“ऐसी पुष्टि को वास्तविक यात्रा का प्राथमिक प्रमाण माना जाएगा, जिससे सबूत का भार रेलवे प्रशासन पर स्थानांतरित हो जाता है।”
कोर्ट ने यह भी कहा कि जांच अधिकारी की गवाही या ज़ब्ती पंचनामा जैसी तकनीकी प्रक्रियाओं पर अत्यधिक ज़ोर देना अनुचित है।
“ये कार्यवाही कोई आपराधिक मुकदमे नहीं हैं जहाँ संदेह से परे प्रमाण की आवश्यकता होती है,” न्यायमूर्ति कुमार ने लिखा। “ये कल्याणकारी कार्यवाही हैं, जिन्हें संभावनाओं के संतुलन के सिद्धांत से संचालित किया जाता है।” कोर्ट ने यह भी चेताया कि “ऐसे सामाजिक न्याय के कानून को किसी फॉरेंसिक बाधा दौड़ में नहीं बदला जाना चाहिए।”
कानूनी आधार और पूर्व निर्णय
2019 के रीना देवी और 2024 के डोली रानी साहा फैसलों पर भरोसा करते हुए, सुप्रीम कोर्ट ने दोहराया कि जब कोई दावा करने वाला व्यक्ति शपथपत्र और आधिकारिक रेलवे दस्तावेज़ों के साथ दावा करता है, तो अब रेलवे पर यह दायित्व आता है कि वह साबित करे कि मृतक यात्री नहीं था। अदालत ने यह भी कहा कि मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय ने मौत को “अप्रत्याशित घटना” तो माना था, लेकिन केवल तकनीकी कारणों से मुआवज़ा देने से इनकार कर दिया।
अदालत ने कहा,
"दावेदारों पर जो प्रारंभिक दायित्व था, वह पूरा हो चुका था।" डीआरएम रिपोर्ट, पुलिस दस्तावेज़ों और पोस्टमार्टम रिपोर्ट ने विधवा के दावे की पुष्टि की। "सिर्फ प्रक्रियात्मक त्रुटियों के आधार पर किसी वैध दावे को खारिज नहीं किया जा सकता।"
अंतिम निर्णय
सुप्रीम कोर्ट ने उच्च न्यायालय (15 मई 2024) और रेलवे क्लेम्स ट्रिब्यूनल, भोपाल (16 जनवरी 2023) के आदेशों को रद्द करते हुए केंद्र सरकार और रेलवे प्रशासन को विधवा और उसके नाबालिग बेटे को ₹8 लाख मुआवज़ा देने का निर्देश दिया। अदालत ने कहा कि भुगतान आठ हफ्तों के भीतर किया जाए, अन्यथा राशि पर 6% वार्षिक ब्याज लागू होगा।
फैसले के अंत में न्यायमूर्ति अरविंद कुमार ने कहा कि भविष्य के सभी ट्रिब्यूनल और उच्च न्यायालय इस सिद्धांत को अपनाएँ ताकि
“मुआवज़े का वैधानिक अधिकार वास्तविक, सुलभ और कानून के मानवीय उद्देश्य के अनुरूप बना रहे।”
Case Title: Rajni & Another v. Union of India & Another
Case Number: Civil Appeal (Arising out of SLP (C) No. 19549 of 2024)