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चार दशक बाद इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने 1982 के जालौन पत्नी हत्या मामले में दो लोगों को बरी करने के आदेश को पलट दिया तथा उन्हें आजीवन कारावास की सजा सुनाई।

Shivam Y.

इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने 1984 के बरी करने के फैसले को पलटते हुए 1982 के जालौन पत्नी हत्या मामले में दो लोगों को दोषी ठहराया; आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई। - राज्य बनाम अवधेश कुमार एवं अन्य

चार दशक बाद इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने 1982 के जालौन पत्नी हत्या मामले में दो लोगों को बरी करने के आदेश को पलट दिया तथा उन्हें आजीवन कारावास की सजा सुनाई।

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने एक दशकों पुराने मामले में बड़ा फैसला सुनाते हुए दो लोगों को दोषी ठहराया है। यह मामला एक युवती, कुसुमा देवी, की हत्या से जुड़ा है, जिसे पहले प्राकृतिक मौत बताकर दबा दिया गया था। न्यायमूर्ति राजीव गुप्ता और न्यायमूर्ति हरवीर सिंह की खंडपीठ ने सरकारी अपील पर सुनवाई करते हुए 1984 का बरी करने का आदेश रद्द कर दिया और आरोपी अवधेश कुमार व माता प्रसाद को आजीवन कारावास की सजा सुनाई।

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पृष्ठभूमि

यह मामला 2 अगस्त 1982 का है, जब जालौन जिले के औरेखी गांव की 25 वर्षीय कुसुमा देवी की हत्या कर दी गई थी। अगली सुबह उसके पिता, जगदीश प्रसाद, को सूचना दी गई कि उनकी बेटी की मौत हो गई है। लेकिन जब उन्हें पता चला कि रात में ही शव को बिना सूचना दिए जल्दबाजी में जला दिया गया, तो उन्हें संदेह हुआ।

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अभियोजन के अनुसार, कुसुमा ने पहले ही अपने पिता को बताया था कि उसका पति अवधेश अपने छोटे भाई की पत्नी से अवैध संबंध रखता है, जिससे वैवाहिक जीवन बिगड़ गया था। गांव के गवाहों ने अदालत में बयान दिया कि उन्होंने कुसुमा को दबाकर और गला घोंटते हुए देखा था, जबकि आरोपियों ने इसे “भूत उतारने” का बहाना बताया।

1984 में ट्रायल कोर्ट ने गवाहों के बयानों में विरोधाभास बताते हुए सभी आरोपियों को बरी कर दिया था। राज्य सरकार ने इस फैसले को चुनौती दी, लेकिन अपील 40 साल से ज्यादा समय तक लंबित रही। इस बीच दो आरोपी, प्रमोद कुमार और किशोर, की मौत हो गई, और मुकदमा केवल अवधेश और माता प्रसाद के खिलाफ जारी रहा।

अदालत की टिप्पणियाँ

हाईकोर्ट ने निचली अदालत की दलीलों को गंभीर खामियों से भरा बताया। गवाह शाकिर अली और लाखन सिंह ने लगातार बयान दिया कि उन्होंने टॉर्च की रोशनी में मृतका को दबाते और गला घोंटते देखा।

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अदालत ने कहा:

"जांच अधिकारी की लापरवाही अभियुक्तों को बरी करने का आधार नहीं हो सकती।"

शव के जल्दबाजी में किए गए दाह संस्कार पर अदालत ने टिप्पणी की कि यह सीधे-सीधे अपराध की ओर इशारा करता है:

"शव को सबसे तेज और जल्दबाजी में जलाना, और कानूनी सज़ा से बचने की नीयत उनके असामान्य आचरण को दर्शाता है।"

न्यायाधीशों ने सामाजिक परिप्रेक्ष्य का भी जिक्र किया और अंधविश्वास का सहारा लेकर अपराध छिपाने की निंदा की।

"यह अंधविश्वास और सामाजिक बुराइयों का जीवंत उदाहरण है, जिन्हें खत्म करना जरूरी है," अदालत ने कहा।

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फैसला

सबूतों का पुनर्मूल्यांकन करने के बाद अदालत ने निष्कर्ष निकाला कि कुसुमा की मौत प्राकृतिक नहीं बल्कि हत्या थी। सरकारी अपील स्वीकार कर बरी का आदेश पलट दिया गया।

अवधेश कुमार और माता प्रसाद दोनों को भारतीय दंड संहिता की धारा 302 (हत्या) और 201 (सबूत मिटाने) के तहत दोषी ठहराते हुए आजीवन कारावास और ₹20,000-₹20,000 के जुर्माने की सजा सुनाई गई।

चार दशक से लंबित यह मामला अब इस सख्त संदेश के साथ समाप्त होता है कि विलंब या तकनीकी कमियों के चलते असली अपराधियों को मामूली शक के आधार पर आज़ाद नहीं किया जा सकता।

Case Title:- State vs. Awadhesh Kumar and Others

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