इलाहाबाद हाईकोर्ट ने 19 सितम्बर 2025 को 2015 के चर्चित महोबा सामूहिक दुष्कर्म मामले में अपना बहुप्रतीक्षित फैसला सुनाया। चार दोषियों में से तीन को संदेह का लाभ देते हुए रिहा कर दिया गया, जबकि एक अभियुक्त की सजा और 20 साल की कैद को बरकरार रखा गया।
पृष्ठभूमि
यह मामला जनवरी 2015 का है, जब महोबा जिले के चरखारी कस्बे की 20 वर्षीय युवती को घर के पास से कथित तौर पर अगवा कर स्थानीय दुकान के पीछे खंडहरनुमा इमारत में कई लोगों ने दुष्कर्म किया। इस घटना से कस्बे में सनसनी फैल गई और पुलिस पर राजनीतिक दबाव भी बढ़ा।
शुरुआत में पीड़िता के परिवार ने 12 जनवरी 2015 को धारा 323 आईपीसी के तहत मारपीट की रिपोर्ट दर्ज कराई। लेकिन अगले ही दिन शाम को सामूहिक दुष्कर्म का मुकदमा धारा 376-डी आईपीसी में दर्ज हुआ। छह लोगों पर चार्जशीट दाखिल हुई, जिनमें से चार - इरफान पुत्र शाहजादे, इरफान उर्फ गोलू, रितेश उर्फ शानू और मनवेन्द्र उर्फ कल्लू - को 2017 में महोबा सेशंस कोर्ट ने दोषी मानते हुए 20-20 साल की कैद और जुर्माने की सजा सुनाई थी।
अदालत की टिप्पणियां
न्यायमूर्ति जे.जे. मुनिर ने दोनों पक्षों की लंबी बहस सुनने के बाद कई अहम बिंदुओं पर गौर किया।
- कोर्ट ने कहा कि पीड़िता का पहला बयान सिर्फ मारपीट का था, न कि दुष्कर्म का, जिससे बाद की एफआईआर पर सवाल उठते हैं।
- अदालत ने यह भी कहा कि “दुष्कर्म साबित करने के लिए चोट का होना ज़रूरी नहीं है,” लेकिन बिना पहचान परेड के अभियुक्तों की देर से पहचान संदेह पैदा करती है।
- कोर्ट ने माना कि पीड़िता अपने बयान में अपराध का विवरण लगातार देती रही, मगर शराब पिलाए जाने के बाद उसकी आधी बेहोशी की हालत में सभी आरोपियों को पहचान पाने की क्षमता संदिग्ध रही।
राज्य सरकार ने ट्रायल कोर्ट के फैसले का बचाव करते हुए कहा कि पीड़िता का बयान “अटूट और बिना बढ़ा-चढ़ा” है और यह फॉरेंसिक रिपोर्ट से भी पुष्ट होता है। वहीं बचाव पक्ष के वकीलों ने तर्क दिया कि कुछ अभियुक्तों को सिर्फ राजनीतिक दबाव के चलते फंसाया गया और उनके नाम पीड़िता के शुरुआती बयानों में कभी नहीं थे।
Read also:- सुप्रीम कोर्ट ने अलिपुर केस में समयसीमा चूकने के बाद अधिकार छोड़ने वाले मजिस्ट्रेट पर जताई नाराज़गी
फैसला
अपने 82 पन्नों के फैसले में हाईकोर्ट ने इरफान पुत्र शाहजादे, रितेश उर्फ शानू और मनवेन्द्र उर्फ कल्लू को संदेह का लाभ देते हुए बरी कर दिया। अदालत ने आदेश दिया -
“अपीलार्थी… को बरी किया जाता है और यदि किसी अन्य मामले में वांछित न हों तो तुरंत रिहा किया जाए।”
हालाँकि, कोर्ट ने इरफान उर्फ गोलू की सजा को बरकरार रखा और उसकी 20 साल की कठोर कारावास व जुर्माने की सजा की पुष्टि की। पीठ ने माना कि उसका अपराध साबित है क्योंकि उसे पीड़िता पहले से जानती थी और उसने हर बयान में उसका नाम लिया था।
इस फैसले से तीन परिवारों ने राहत की सांस ली, लेकिन पीड़िता के पक्ष के लिए यह निराशाजनक रहा, जिन्होंने लगभग एक दशक की लड़ाई के बाद पूर्ण न्याय की उम्मीद की थी।
Case Title: Irfan vs. State of U.P.