बुधवार को सुप्रीम कोर्ट में माहौल कुछ अलग ही था-काफी भरा हुआ, थोड़ा तनावपूर्ण-क्योंकि अदालत ने एक दुर्लभ और बेहद महत्वपूर्ण राष्ट्रपति संदर्भ पर सुनवाई शुरू की। यह मामला, जिसका औपचारिक शीर्षक है-In Re: Assent, Withholding or Reservation of Bills by the Governor and the President of India-भारत के इतिहास में मात्र 16वां मौका है जब राष्ट्रपति ने अनुच्छेद 143 के तहत सर्वोच्च न्यायालय से राय मांगी है। सुनवाई के दौरान सॉलिसिटर जनरल, कई वरिष्ठ वकील और विभिन्न राज्यों के प्रतिनिधि अपने-अपने तर्क रखते दिखे-कभी सहमत, कभी तीखे विरोध के साथ-पर इस बात पर सभी ने ज़ोर दिया कि मुद्दा बेहद गंभीर है।
पृष्ठभूमि (Background)
यह संदर्भ ऐसे समय आया है जब कई राज्य सरकारें और राज्यपाल कार्यालयों के बीच महीनों से विधेयकों को लंबित रखने को लेकर टकराव चल रहा था। राष्ट्रपति ने अनुच्छेद 143(1) के तहत औपचारिक रूप से सुप्रीम कोर्ट से पूछा है कि राज्यपाल और राष्ट्रपति विधेयकों पर हस्ताक्षर, असहमति या आरक्षण देने के मामलों में किन सीमाओं के भीतर काम कर सकते हैं।
कई राज्यों का कहना था कि यह संदर्भ अनावश्यक है क्योंकि तमिलनाडु राज्य बनाम तमिलनाडु के राज्यपाल (अप्रैल 2025) में दो-न्यायाधीशों की पीठ ने पहले से ही इन मुद्दों को छुआ था। वहीं, बाकी राज्यों ने तर्क दिया कि उस फैसले ने “स्पष्टता से ज़्यादा भ्रम” पैदा किया, इसलिए बड़ी पीठ की विस्तृत राय ज़रूरी है। अदालत ने भी इशारा दिया कि यह मुद्दा “पूरी तरह कार्यात्मक” है और इससे पल्ला झाड़ना संभव नहीं।
अदालत के अवलोकन (Court’s Observations)
सुनवाई की शुरुआत में ही मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ ने-काफी सहज लहजे में-कहा कि यह संदर्भ “पिछले सभी अनुच्छेद 143 के मामलों से बिल्कुल अलग” है, क्योंकि यह भारत की संघीय व्यवस्था के रोज़मर्रा के कामकाज से जुड़ा है। पीठ ने कहा कि संवैधानिक मशीनरी “धुंध” में नहीं चल सकती, और अगर राज्यपालों की भूमिका पर कोई भ्रम है, तो “अदालत को संवैधानिक सिलवटें सीधी करनी ही होंगी।”
कई न्यायाधीशों ने राज्यों द्वारा उठाई गई प्रारंभिक आपत्तियों पर सवाल उठाए। एक न्यायाधीश ने टिप्पणी की, “यदि सर्वोच्च संवैधानिक पदाधिकारी (राष्ट्रपति) कोई संदेह व्यक्त कर रहे हैं, तो हम यह नहीं कह सकते कि ‘सब पहले ही तय है’ और जवाब देने से इनकार कर दें।”
पीठ ने एक बेहद महत्वपूर्ण भाषाई प्रश्न भी उठाया:
- क्या अनुच्छेद 200 राज्यपाल को चार विकल्प देता है-(हस्ताक्षर, असहमति, पुनर्विचार के लिए वापसी, राष्ट्रपति को आरक्षण)?
- या विकल्प तीन ही हैं, क्योंकि “असहमति” का अर्थ उस स्थिति से जुड़ा है जब उन्हें विधेयक वापस भेजना होता है?
कोर्ट की झुकाव दूसरी व्याख्या की ओर दिखी। एक न्यायाधीश ने कहा:
“अनुच्छेद 200 के ढांचे से ऐसा प्रतीत नहीं होता कि राज्यपाल बिना कारण बताए, विधेयक को रोके रखे-साधारण ‘असहमति’ का विकल्प एक स्वतंत्र शक्ति नहीं है।”
एक अन्य न्यायाधीश ने हल्के व्यंग्य में कहा कि अगर राज्यपाल किसी मनी बिल को ही बिना लौटाए रोक लें, तो “राज्य का पूरा वित्तीय ढांचा ठप हो सकता है।”
पीठ ने यह भी बताया कि कमेेश्वर सिंह, वल्लुरी, और होएक्स्ट जैसे पुराने मामलों को पहले की कुछ याचिकाओं में गलत संदर्भ में इस्तेमाल किया गया क्योंकि इनमें से किसी ने भी अनुच्छेद 200 के वास्तविक विकल्पों का विश्लेषण नहीं किया था।
निर्णय
ऑर्डर के इस हिस्से तक, सुप्रीम कोर्ट ने अभी अपना अंतिम मत जारी नहीं किया है, लेकिन उसने बहुत साफ तौर पर यह घोषित कर दिया कि:
- राष्ट्रपति का संदर्भ पूरी तरह वैध और विचार योग्य है।
- प्रारंभिक आपत्तियाँ (जैसे कि इस मुद्दे पर पहले फैसला हो चुका है आदि) खारिज की जाती हैं।
- कोर्ट अब राज्यपाल और राष्ट्रपति की शक्तियों-विशेषकर अनुच्छेद 200 और 201 के तहत-पर विस्तृत मार्गदर्शन देगा।
अदालत ने साफ किया कि यह मामला राजनीतिक विवाद नहीं, बल्कि एक संवैधानिक आवश्यकता है, जो सीधे-सीधे भारत की संघीय संरचना और लोकतांत्रिक प्रक्रिया को प्रभावित करता है। विधेयक पर राज्यपाल के विकल्प, मंत्रिपरिषद की सलाह की बाध्यता, और समय-सीमा जैसी बड़ी बातें कोर्ट आगे के भागों में विस्तार से बताएगी। अभी तक उपलब्ध ऑर्डर का यही निष्कर्ष है।
Case Title In Re: Assent, Withholding or Reservation of Bills by the Governor and the President of India (Presidential Reference No. 1 of 2025)
Type of Case: Presidential Reference under Article 143(1) seeking Supreme Court’s advisory opinion.