मंगलवार सुबह अपेक्षाकृत शांत अदालत में, केरल हाई कोर्ट ने एक ऐसे मामले पर सुनवाई की जिसने परिवारिक जिम्मेदारी के नाज़ुक पहलुओं को सामने ला दिया। मामला ऊपर-ऊपर से भले साधारण दिख रहा था भरण-पोषण के आदेश से असंतुष्ट एक बेटे द्वारा दायर पुनरीक्षण याचिका। लेकिन बहस आगे बढ़ते ही साफ हो गया कि यह मुद्दा कुछ और ही गहरा था: एक बुज़ुर्ग मां की गरिमा और सुरक्षा।
पृष्ठभूमि
यह मामला 42 वर्षीय फ़ारूक़ से जुड़ा था, जो खाड़ी में काम करता है और जिसने जुलाई 2025 के उस फैमिली कोर्ट आदेश को चुनौती दी थी, जिसमें उसे अपनी 60 वर्षीय मां, क़दीजा को हर माह ₹5,000 देने का निर्देश दिया गया था। इससे पहले मां ने ₹25,000 की मांग की थी, यह कहते हुए कि उनका कोई आय-स्रोत नहीं है।
बेटे ने इसका विरोध करते हुए दावा किया कि मां मवेशी पालन करती हैं और उससे कमाती हैं। साथ ही उसने कहा कि उनका पति जो एक मछुआरे हैं पहले से ही उनका खर्च उठाते हैं। उसके वकील ने यह भी तर्क दिया कि उसे अपनी पत्नी व बच्चे का भी खर्च उठाना पड़ता है।
अदालत की टिप्पणियाँ
जस्टिस कौसर एडप्पगथ बेटे के अधिकांश तर्कों से प्रभावित नहीं दिखे। एक चरण पर पीठ ने कुछ दृढ़ता और हल्की निराशा के स्वर में कहा:
“एक समृद्ध बेटे द्वारा अपनी वृद्ध मां से यह कहना कि वह अपनी जीविका चलाने के लिए मवेशी पाले, यह दुर्भाग्यपूर्ण और अनुचित है।”
न्यायाधीश ने कहा कि मवेशी पालन शारीरिक रूप से कठिन काम है और इसे साठ वर्ष की महिला से करने की उम्मीद नहीं की जा सकती। वैसे भी इसका कोई सबूत नहीं था कि वह ऐसा कोई काम कर रही हैं। दिलचस्प बात यह रही कि बेटा खुद कोर्ट में गवाही देने भी नहीं आया।
पति के कथित आर्थिक सहयोग पर कोर्ट ने स्पष्ट दृष्टिकोण अपनाया। BNSS की धारा 144 (पूर्व धारा 125 CrPC) माता-पिता को यह स्वतंत्र अधिकार देती है कि वे अपने बच्चों से भरण-पोषण मांग सकें, भले ही दूसरा माता-पिता जीवित हो।
अदालत ने कहा,
“मां को अपने बेटे से भरण-पोषण मांगने का अधिकार स्वतंत्र और पूर्णतः अलग है।” यह समझाते हुए कि बेटे की कानूनी जिम्मेदारी सिर्फ इसलिए समाप्त नहीं हो जाती कि पिता के पास भी आय है।
अदालत पति की गवाही से भी संतुष्ट नहीं हुई। निचली अदालत पहले ही उसकी बातों पर भरोसा नहीं कर चुकी थी।
जस्टिस एडप्पगथ ने बेटे के इस तर्क को भी खारिज कर दिया कि उसे अपनी पत्नी और बच्चे का भी पालन-पोषण करना है। उन्होंने स्पष्ट किया कि विवाह या संतान होने के कारण यह कानूनी जिम्मेदारी समाप्त नहीं होती कि वह अपनी असहाय माता की देखभाल करे।
निर्णय
मां द्वारा बेटे की आय लगभग ₹2 लाख मासिक बताई गई थी, जिसे उसने नकारा भी, लेकिन कोई दस्तावेज़ नहीं दिखाया। इस पृष्ठभूमि में हाई कोर्ट ने माना कि फैमिली कोर्ट द्वारा तय ₹5,000 प्रतिमाह की राशि बहुत ही साधारण है, “कम” भी कही जा सकती है।
याचिका में कोई दम नहीं पाते हुए, हाई कोर्ट ने पुनरीक्षण याचिका खारिज कर दी और फैमिली कोर्ट का आदेश यथावत रखा।
Case Title: Farookh vs. Kayyakkutty @ Kadeeja
Case Number: RPFC No. 375 of 2025
Date of Judgment: 04 November 2025










