भारत के सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को एक ऐतिहासिक फैसले में केंद्र सरकार को निर्देश दिया कि वह ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के लिए रोजगार में समान अवसर की राष्ट्रीय नीति तैयार करने हेतु एक उच्च स्तरीय सलाहकार समिति का गठन करे। यह फैसला जेन कौशिक बनाम भारत संघ मामले में आया, जिसमें याचिकाकर्ता, एक ट्रांसजेंडर शिक्षिका, ने शिक्षा क्षेत्र में भेदभाव के खिलाफ शिकायत दर्ज की थी।
पृष्ठभूमि
कौशिक, जो लंबे समय से ट्रांसजेंडर अधिकारों की मुखर आवाज़ रही हैं, ने अपने जेंडर ट्रांज़िशन के बाद निजी स्कूलों द्वारा रोजगार देने से इनकार किए जाने पर सुप्रीम कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाया। उनके वकील ने दलील दी कि यह इनकार संविधान के अनुच्छेद 14, 15, 17, 19, और 21 का उल्लंघन है, जो समानता, गरिमा और भेदभाव से मुक्ति की गारंटी देते हैं।
कोर्ट ने नोट किया कि ट्रांसजेंडर व्यक्तियों (अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 2019 और उसके 2020 के नियमों के बावजूद केंद्र और राज्यों दोनों ने संरक्षणात्मक उपायों के क्रियान्वयन में “घोर शिथिलता” दिखाई है। तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल और दिल्ली को छोड़कर अधिकांश राज्यों ने अनिवार्य ट्रांसजेंडर प्रोटेक्शन सेल्स तक नहीं बनाई हैं।
“2019 का अधिनियम बेरहमी से एक मृत दस्तावेज़ बना दिया गया है,” पीठ ने कहा, नौकरशाही की उदासीनता पर गहरी चिंता जताते हुए।
कोर्ट की टिप्पणियाँ
न्यायमूर्ति आर. महादेवन सहित दो सदस्यीय पीठ ने NALSA बनाम भारत संघ और नितीशा बनाम भारत संघ जैसे पूर्व समानता के मामलों का हवाला देते हुए कहा कि समानता केवल प्रतीकात्मक नहीं, बल्कि वास्तविक और ठोस होनी चाहिए।
न्यायालय ने यह भी रेखांकित किया कि भेदभाव हमेशा प्रत्यक्ष रूप में नहीं होता। “कोई नीति या नियम जो ऊपर से तटस्थ दिखता है, वह भी संरचनात्मक पूर्वाग्रह को बढ़ावा दे सकता है,” कोर्ट ने कहा, अप्रत्यक्ष भेदभाव के सिद्धांत का हवाला देते हुए।
कोर्ट ने इंटरसेक्शनैलिटी की अवधारणा को भी मान्यता दी - यह समझाते हुए कि किस तरह जेंडर, जाति और विकलांगता एक साथ मिलकर किसी व्यक्ति के साथ भेदभाव को और गहरा बना देते हैं। न्यायमूर्ति महादेवन ने कहा, “ट्रांसजेंडर व्यक्ति लगातार कई स्तरों पर बहिष्कार का सामना करते हैं - आर्थिक, सामाजिक और संस्थागत। इसे अनदेखा करना भारत के सबसे हाशिये पर खड़े नागरिकों की वास्तविकता को नकारने जैसा है।”
सामाजिक न्याय मंत्रालय के इस पूर्व बयान की कड़ी आलोचना करते हुए कि “ऐसी कोई नीति विचाराधीन नहीं है”, कोर्ट ने कहा कि सरकार का यह रुख “2019 के अधिनियम की भावना के साथ विश्वासघात है और संवेदनशीलता की कमी को दर्शाता है।”
निर्णय
सुप्रीम कोर्ट ने एक सलाहकार समिति गठित की है, जिसकी अध्यक्षता दिल्ली हाईकोर्ट की पूर्व न्यायाधीश जस्टिस आशा मेनन करेंगी। समिति में प्रसिद्ध ट्रांस अधिकार कार्यकर्ता अक्काई पद्मशाली, ग्रेस बानू, और वैयजन्ती वसंता मोगली को भी शामिल किया गया है। इसके अतिरिक्त, कानून, स्वास्थ्य और सामाजिक नीति के विशेषज्ञ भी समिति का हिस्सा होंगे। समिति को अपनी रिपोर्ट छह महीने के भीतर प्रस्तुत करनी होगी।
कोर्ट ने सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय को समिति के कार्य के लिए धन और आवश्यक सहयोग प्रदान करने का निर्देश दिया, साथ ही ₹10 लाख की प्रारंभिक राशि सुप्रीम कोर्ट की रजिस्ट्री में जमा कराने का आदेश दिया। इसके अलावा, केंद्र और राज्य सरकारों को आवश्यक आँकड़े और सहयोग प्रदान करने के लिए भी बाध्य किया गया है।
व्यक्तिगत अन्याय की दुर्लभ स्वीकृति में, कोर्ट ने यह भी आदेश दिया कि ₹50,000 का मुआवज़ा संबंधित केंद्रीय मंत्रालयों द्वारा और ₹50,000 उस निजी स्कूल द्वारा दिया जाए जिसने कौशिक के साथ भेदभाव किया था।
पीठ ने कहा, “राज्य मूक दर्शक नहीं बन सकता जब उसके नागरिकों की गरिमा और आजीविका को पूर्वाग्रह कुचल दे।”
इस आदेश के साथ, याचिका का निपटारा कर दिया गया और भारत की पहली संगठित ट्रांसजेंडर रोजगार नीति की दिशा में यह एक निर्णायक कदम साबित हुआ।
Case Title: Jane Kaushik v. Union of India & Others (2025)
Citation: 2025 INSC 1248
Case Type: Writ Petition (Civil) No. 1405 of 2023
Date of Judgment: 2025