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इलाहाबाद हाईकोर्ट ने यूपी के अधिकारियों को फटकार लगाई: अदालती आदेशों का पालन केवल अवमानना के खतरे के तहत किया गया

Shivam Y.

इलाहाबाद हाई कोर्ट ने उत्तर प्रदेश सरकार के अधिकारियों को अदालती आदेशों का पालन करने में देरी के लिए फटकार लगाई। कोर्ट ने कहा कि अधिकारी तभी कार्रवाई करते हैं जब उनके खिलाफ अवमानना नोटिस जारी किया जाता है। देरी से दायर अपील खारिज कर दी गई।

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने यूपी के अधिकारियों को फटकार लगाई: अदालती आदेशों का पालन केवल अवमानना के खतरे के तहत किया गया

इलाहाबाद हाई कोर्ट ने हाल ही में उत्तर प्रदेश सरकार के अधिकारियों द्वारा अदालती आदेशों का पालन न करने की आदत पर कड़ी नाराजगी जताई। कोर्ट ने देखा कि अधिकारी अक्सर न्यायिक निर्देशों की अनदेखी करते हैं और तभी कार्रवाई करते हैं जब उनके खिलाफ अवमानना की कार्रवाई शुरू होती है।

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मुख्य न्यायाधीश अरुण भंसाली और न्यायमूर्ति जसप्रीत सिंह की पीठ ने राज्य अधिकारियों के रवैये पर गंभीर चिंता जताई। पीठ ने कहा:

"अधिकारियों का यह रवैया कि अदालत के आदेशों की तब तक अनदेखी की जाए जब तक अवमानना याचिका का नोटिस नहीं आ जाता, स्वीकार्य नहीं है। कई मौकों पर, अवमानना नोटिस जारी होने के बाद भी कोई कार्रवाई नहीं की जाती और तभी कुछ होता है जब अधिकारियों को व्यक्तिगत रूप से अदालत में पेश होने का आदेश दिया जाता है।"

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कोर्ट ने आगे कहा कि ऐसी देरी अब आम बात हो गई है, जहां अधिकारी देरी माफी के आवेदन को एक गंभीर कानूनी दायित्व के बजाय महज एक औपचारिकता समझते हैं।

मामले की पृष्ठभूमि

यह मामला उत्तर प्रदेश सरकार की एक विशेष अपील से जुड़ा था, जिसमें एकल न्यायाधीश के आदेश को चुनौती दी गई थी। उस आदेश में राज्य को कुछ कर्मचारियों को बहाल करने और उनका बकाया वेतन देने का निर्देश दिया गया था। सरकार ने यह अपील 345 दिनों की देरी से दायर की थी, जिसका कारण प्रशासनिक औपचारिकताएं बताई गईं।

सरकार ने अपने हलफनामे में दावा किया कि देरी अनजाने में हुई और प्रक्रियात्मक अड़चनों के कारण हुई। हालांकि, याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया कि सरकार का स्पष्टीकरण झूठा है और उन्होंने बताया कि सरकार ने अदालत के आदेश को स्वीकार करने में छह महीने लगा दिए।

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कोर्ट ने सरकार के तर्कों की जांच की और उन्हें नाकाफी पाया। चीफ स्टैंडिंग काउंसिल से कानूनी राय लेने का दावा करने के बावजूद, सरकार कोई ठोस सबूत पेश नहीं कर पाई और न ही कार्रवाई में लंबे अंतराल का कोई स्पष्टीकरण दे पाई। पीठ ने कहा:

"पूरे हलफनामे में देरी माफी के लिए पर्याप्त कारण बताने का कोई इरादा नहीं दिखता, केवल तारीखों का जिक्र करने की औपचारिकता पूरी की गई है... हलफनामे की भाषा और अंदाज से साफ जाहिर होता है कि अपीलकर्ताओं ने इसे हक समझ लिया है कि देरी माफी मांगना उनका अधिकार है।"

कोर्ट ने जोर देकर कहा कि ऐसा रवैया न्यायिक प्रक्रिया को कमजोर करता है और कानून के शासन के प्रति सरकार की प्रतिबद्धता पर सवाल खड़े करता है।

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पीठ ने सुप्रीम कोर्ट के फैसलों का सहारा लिया, जिसमें पोस्टमास्टर जनरल बनाम लिविंग मीडिया इंडिया लिमिटेड (2012) भी शामिल था। इस फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि सरकारी विभागों को लापरवाही नहीं बरतनी चाहिए और बिना वजह देरी माफी की अपेक्षा नहीं करनी चाहिए। शीर्ष अदालत ने चेतावनी दी थी:

"सरकारी विभागों का विशेष दायित्व है कि वे अपने कर्तव्यों का पालन लगन और प्रतिबद्धता से करें। देरी माफी एक अपवाद है और सरकारी विभागों के लिए इसे सामान्य लाभ के रूप में नहीं इस्तेमाल किया जाना चाहिए।"

इसी आधार पर, इलाहाबाद हाई कोर्ट ने देरी माफ करने से इनकार कर दिया और अपील को समय सीमा से बाहर होने के कारण खारिज कर दिया।

केस का शीर्षक: उत्तर प्रदेश राज्य अपने अतिरिक्त मुख्य सचिव, बेसिक शिक्षा विभाग, उत्तर प्रदेश सरकार, लखनऊ और अन्य के माध्यम से बनाम जय सिंह और अन्य [विशेष अपील दोषपूर्ण संख्या 276/2024]