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मद्रास हाईकोर्ट ने बेटे के पक्ष में मां की वसीयत को मान्य ठहराया, बेटी के जालसाजी और संदिग्ध परिस्थितियों के आरोप किए खारिज

Shivam Y.

मद्रास उच्च न्यायालय ने बेटे ए. देवराज के पक्ष में मां की वसीयत को वैध ठहराया, ए. देवराज बनाम वसंती (2025) मामले में जालसाजी और संदिग्ध परिस्थितियों का आरोप लगाने वाली बेटी की चुनौती को खारिज कर दिया। - ए. देवराज बनाम वसंती

मद्रास हाईकोर्ट ने बेटे के पक्ष में मां की वसीयत को मान्य ठहराया, बेटी के जालसाजी और संदिग्ध परिस्थितियों के आरोप किए खारिज

17 अक्टूबर 2025 को सुनाए गए एक महत्वपूर्ण फैसले में मद्रास हाईकोर्ट ने एक लंबे पारिवारिक संपत्ति विवाद को समाप्त किया। न्यायमूर्ति डॉ. ए.डी. मारिया क्लीट ने ए. देवराज बनाम वसंती (S.A. No. 251 of 2014) में फैसला सुनाते हुए मां द्वारा बेटे के पक्ष में की गई वसीयत को वैध ठहराया और बेटी के जालसाजी, बीमारी के दौरान अक्षमता और अनुचित बहिष्कार के आरोपों को अस्वीकार कर दिया। इस फैसले से ट्रायल कोर्ट का निर्णय बहाल हुआ और प्रथम अपीलीय न्यायालय द्वारा बेटी के पक्ष में दिए गए आदेश को रद्द कर दिया गया।

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पृष्ठभूमि

यह मामला दिवंगत पापाथी की संपत्ति से जुड़ा था, जो 1990 के एक बंटवारे के दस्तावेज़ के तहत कुछ संपत्तियों की एकमात्र मालिक बन गई थीं। दिसंबर 2002 में उनकी मृत्यु के बाद, उनकी बेटी वसंती ने भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम 1925 के तहत बराबर के हिस्से का दावा किया। उनके भाई ए. देवराज ने इस दावे का विरोध करते हुए एक अपंजीकृत वसीयत का हवाला दिया, जो कथित तौर पर उनकी माँ ने अपनी मृत्यु से एक हफ़्ते पहले - 15 दिसंबर, 2002 को - बनवाई थी, जिसमें सब कुछ उनके नाम कर दिया गया था।

ट्रायल कोर्ट ने वसीयत को वैध ठहराया और कहा कि यह सही तरीके से तैयार और प्रमाणित की गई थी। लेकिन 2013 में ईरोड के प्रधान जिला न्यायाधीश ने उस निर्णय को पलट दिया और वसीयत को “संदिग्ध” बताते हुए संपत्ति को उत्तराधिकार के तहत बाँटने का आदेश दिया। इसके बाद देवराज ने हाईकोर्ट में दूसरी अपील दायर की।

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न्यायालय के अवलोकन

न्यायमूर्ति क्लीट ने सभी साक्षीगण और लेखक की गवाही का विस्तार से परीक्षण किया। कुछ मामूली अंतर पाए गए-जैसे मां कुर्सी पर बैठी थीं या खाट पर लेटी थीं, या उन्होंने अंगूठी पहनी थी या नहीं। परंतु न्यायाधीश ने माना कि इतने वर्षों बाद याददाश्त में हल्के फर्क आना स्वाभाविक है।

पीठ ने कहा,

"आठ वर्षों बाद गवाहों की स्मृति में मामूली भिन्नता विश्वसनीय गवाही को कमजोर नहीं करती। ऐसे अंतर अक्सर सत्यता का संकेत देते हैं।"

न्यायालय ने इस दलील को खारिज कर दिया कि विधवा द्वारा अंगूठी पहनना वसीयत की जालसाजी साबित करता है। न्यायमूर्ति ने कहा कि सामाजिक रीति-रिवाज बदलते रहते हैं, उन्हें कानूनी निष्कर्ष का आधार नहीं बनाया जा सकता।

इसी तरह, न्यायालय ने पाया कि विशेषज्ञ राय के लिए भेजे गए दस्तावेज़ों पर वसंती की ओर से पर्याप्त नमूना हस्ताक्षर नहीं दिए गए, जिससे रिपोर्ट नहीं आ सकी। इसे वसीयत के खिलाफ साक्ष्य नहीं माना जा सकता।

जहाँ तक मां की बीमारी का प्रश्न है, अदालत ने कहा कि कैंसर उपचार से मानसिक क्षमता पर प्रभाव का कोई प्रमाण नहीं है। “सिर्फ बीमारी या मृत्यु की निकटता मानसिक अक्षमता नहीं मानी जा सकती,” आदेश में कहा गया। अदालत ने यह भी जोड़ा कि कई वसीयतें जीवन के अंतिम क्षणों में बनाई जाती हैं और जब तक वसीयतकर्ता की मानसिक स्थिति सामान्य हो, वे वैध मानी जाती हैं।

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पारिवारिक परिस्थिति और कानूनी तर्क

बेटी ने कहा कि उसका वसीयत से बहिष्कार स्वाभाविक नहीं था और दुर्भावना दर्शाता है। लेकिन देवराज ने तर्क दिया कि वसंती को पहले ही पिता की संपत्ति में हिस्सा मिल चुका था। अदालत ने उसकी बात से सहमति जताई और माना कि उसने अपने बयान में पंचायत समझौते की बात खुद स्वीकार की थी।

न्यायमूर्ति क्लीट ने कहा कि पारंपरिक परिवारों में ऐसा होना असामान्य नहीं है कि विवाहित बेटियों को, जिन्हें पहले से संपत्ति दी जा चुकी है, वसीयत में शामिल न किया जाए। “केवल बहिष्कार को संदेह नहीं माना जा सकता,” निर्णय में कहा गया, यह जोड़ते हुए कि हर व्यक्ति को अपनी संपत्ति अपनी इच्छा के अनुसार बांटने की स्वतंत्रता है।

प्रक्रियात्मक रूप से, न्यायालय ने पाया कि वसंती को वसीयत के बारे में वर्षों से जानकारी थी लेकिन उसने लंबे समय तक कोई कानूनी कदम नहीं उठाया। अदालत ने कहा कि यह “मौन सहमति” (acquiescence) दर्शाता है।

हाईकोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि पट्टा परिवर्तन में देरी को वैध वसीयत को अमान्य करने का कारण नहीं माना जा सकता, क्योंकि यह केवल राजस्व प्रयोजन हेतु होता है।

पूर्ववृत्त और उदाहरण

न्यायमूर्ति क्लीट ने कई मामलों का हवाला दिया, जिनका उल्लेख वसंती ने किया था-जैसे पी. जयज्योथी बनाम जे. राजथी अम्मल (2019) और कविता कंवर बनाम पामेला मेहता (2021)। इन मामलों में वसीयतें इसलिए अस्वीकार की गईं क्योंकि साक्षीगण ने सही तरह से गवाही नहीं दी थी या वसीयत को छिपाया गया था। लेकिन इस मामले में साक्षीगण के बयान सुसंगत और विश्वसनीय थे, और वसीयत कभी छिपाई नहीं गई।

"न्यायालय को पूरे घटनाक्रम को समग्र रूप से देखना चाहिए," फैसले में कहा गया, यह जोड़ते हुए कि संदिग्ध परिस्थितियाँ “वास्तविक और गंभीर" होनी चाहिए, न कि केवल भावनात्मक या अनुमान आधारित।

फैसला

सभी साक्ष्यों और कानूनी उदाहरणों की समीक्षा के बाद मद्रास हाईकोर्ट ने ए. देवराज के पक्ष में निर्णय सुनाया। न्यायालय ने ट्रायल कोर्ट के फैसले को बहाल करते हुए वसीयत को वैध ठहराया और बेटी के दावे खारिज कर दिए।

न्यायमूर्ति क्लीट ने निष्कर्ष में कहा:

“वसीयत विधिसम्मत रूप से प्रमाणित पाई गई है। कथित संदिग्ध परिस्थितियाँ न तो वास्तविक हैं और न गंभीर। प्रथम अपीलीय न्यायालय का निर्णय रद्द किया जाता है। दूसरी अपील स्वीकार की जाती है।”

न्यायालय ने पारिवारिक संबंधों को ध्यान में रखते हुए किसी भी पक्ष पर लागत नहीं लगाई।

इस प्रकार, भाई और बहन के बीच चला पंद्रह वर्ष पुराना विवाद अंततः समाप्त हुआ-एक ऐसा निर्णय जो केवल कानूनी दृष्टि से नहीं, बल्कि भारतीय परिवारों में परंपरा और वसीयत की स्वतंत्रता के बीच बदलते संबंधों को भी दर्शाता है।

Case Title: A. Devaraj vs. Vasanthi

Case Number: S.A. No. 251 of 2014

Date of Judgment: 17 October 2025

Advocates Appearing:

  • For Appellant: Mr. N. Manoharan, for M/s. P. Veena & Mr. D. Chitra Maragatham, Advocates.
  • For Respondent: Mr. Naveen Kumar Murthi, Advocate.

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