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सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि उसके अपने फैसलों को अनुच्छेद 32 के तहत रिट याचिकाओं के जरिए चुनौती नहीं दी जा सकती

Shivam Y.

भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने यह निर्णय दिया है कि उसके निर्णयों को अनुच्छेद 32 के तहत रिट याचिकाओं के माध्यम से चुनौती नहीं दी जा सकती। अदालत ने अपने निर्णयों की अंतिमता को दोहराया और समीक्षा तथा उपचारात्मक याचिका को ही उचित उपाय बताया।

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि उसके अपने फैसलों को अनुच्छेद 32 के तहत रिट याचिकाओं के जरिए चुनौती नहीं दी जा सकती

भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने 16 अप्रैल, 2025 को दिए गए एक महत्वपूर्ण निर्णय में कहा कि संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत रिट याचिका का उपयोग सर्वोच्च न्यायालय के अपने निर्णयों को चुनौती देने के लिए नहीं किया जा सकता। यह स्पष्टता उस मामले में सामने आई जिसमें हिमाचल प्रदेश राज्य वन विकास निगम लिमिटेड के सेवानिवृत्त कर्मचारियों ने सुप्रीम कोर्ट के एक पूर्व निर्णय को फिर से खोलने की मांग की थी, जिसमें उन्हें पेंशन लाभ देने से इनकार किया गया था।

न्यायमूर्ति सूर्यकांत, दीपांकर दत्ता और उज्ज्वल भुयान की पीठ ने कहा कि जब सुप्रीम कोर्ट किसी मामले में निर्णय दे देता है—चाहे वह विशेष अनुमति याचिका (SLP) के तहत हो या अनुच्छेद 136 के तहत सुनवाई के बाद—तो किसी भी पक्ष को केवल समीक्षा याचिका और फिर, यदि आवश्यक हो, उपचारात्मक याचिका के माध्यम से ही राहत पाने का अधिकार होता है।

“एक वादी जो इस न्यायालय द्वारा विशेष अनुमति याचिका या अपील में दिए गए निर्णय से असंतुष्ट है, वह पहले समीक्षा याचिका और फिर उपचारात्मक याचिका दायर कर सकता है। लेकिन ऐसा निर्णय अनुच्छेद 32 के तहत दायर रिट याचिका में चुनौती नहीं दी जा सकती।”
— सुप्रीम कोर्ट ने कहा

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मामले की पृष्ठभूमि

यह मामला सतीश चंद्र शर्मा व अन्य बनाम हिमाचल प्रदेश राज्य व अन्य शीर्षक से था, जिसमें हिमाचल प्रदेश राज्य वन विकास निगम के तीन सेवानिवृत्त अधिकारियों ने अनुच्छेद 32 के तहत सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया। उन्होंने वर्ष 1999 की हिमाचल प्रदेश कॉर्पोरेट सेक्टर कर्मचारी पेंशन योजना के तहत पेंशन अधिकारों के प्रवर्तन की मांग की थी, जिसे राज्य सरकार ने 2004 में रद्द कर दिया था।

याचिकाकर्ताओं का तर्क था कि वर्ष 2016 में राजेश चंदर सूद बनाम हिमाचल प्रदेश राज्य में सुप्रीम कोर्ट का फैसला पर इनक्यूरियम (binding निर्णयों की अनदेखी में दिया गया) था, क्योंकि इसने डी.एस. नक़ारा बनाम भारत संघ (1983) जैसे पूर्ववर्ती निर्णयों को नजरअंदाज किया था, जिसमें पेंशन लाभों के लिए मनमाने कट-ऑफ डेट को असंवैधानिक करार दिया गया था।

न्यायमूर्ति उज्ज्वल भुयान ने इस निर्णय में याचिकाकर्ताओं की सेवा अवधि, निगम की संरचना, 1999 की पेंशन योजना और उसके निरस्तीकरण से जुड़ी परिस्थितियों की विस्तार से समीक्षा की।

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अदालत ने कहा कि यह मामला पहले ही राजेश चंदर सूद के निर्णय में पूरी तरह से तय किया जा चुका है और उस निर्णय को चुनौती देने का प्रयास अनुचित है। अदालत ने यह भी स्पष्ट किया कि 1999 की योजना को रद्द करना राज्य सरकार का एक नीति निर्णय था, जिसे राजकोषीय विवेक, उचित वर्गीकरण, और गैर-मनमानी के सिद्धांत के तहत सही पाया गया था।

“इस न्यायालय ने विस्तृत कारणों के साथ निर्णय दिया था, जिसमें कट-ऑफ डेट को वैध ठहराया गया था... याचिकाकर्ताओं की असहमति इसे पर इनक्यूरियम नहीं बना सकती।”
— सुप्रीम कोर्ट ने कहा

अदालत ने रिट याचिका को “पूरी तरह से निराधार” बताते हुए खारिज कर दिया और कहा:

“राजेश चंदर सूद का निर्णय याचिकाकर्ताओं पर बाध्यकारी है। अतः रिट याचिका में कोई दम नहीं है और इसे खारिज किया जाता है।”

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हालांकि, अदालत ने यह ध्यान में रखते हुए कि याचिकाकर्ता सेवानिवृत्त वरिष्ठ नागरिक हैं, उन पर कोई लागत नहीं लगाई।

केस का शीर्षक: सतीश चंद्र शर्मा एवं अन्य बनाम हिमाचल प्रदेश राज्य एवं अन्य।

उपस्थिति:

याचिकाकर्ताओं के लिए श्री गोपाल शंकरनारायण, वरिष्ठ वकील। श्री आनंद वर्मा, एओआर सुश्री आद्यशा नंदा, सलाहकार। सुश्री अदिति गुप्ता, सलाहकार।

प्रतिवादी के लिए श्री देवदत्त कामत, वरिष्ठ अधिवक्ता। श्री अनुभव शर्मा, सलाहकार। श्री गौरव प्रकाश पाठक, सलाहकार। श्री निशांत कुमार, एओआर श्री राजेश इनामदार, सलाहकार। श्री अजय देसाई, सलाहकार। श्री रेवंत सोलंकी, सलाहकार। श्री अभ्युदय बाजपेयी, अधिवक्ता। श्री गोपाल प्रसाद, एओआर सुश्री शल्या अग्रवाल, सलाहकार।

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