सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका (PIL) दायर की गई है, जिसमें न्यायमूर्ति यशवंत वर्मा के खिलाफ कथित नकदी बरामदगी मामले में एफआईआर दर्ज करने की मांग की गई है। याचिका में भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) द्वारा तीन-सदस्यीय आंतरिक समिति गठित करने के निर्णय को भी चुनौती दी गई है।
यह याचिका सुप्रीम कोर्ट के अधिवक्ता मैथ्यूज नेडुमपारा द्वारा दायर की गई है, जो के. वीरास्वामी बनाम भारत संघ मामले में दिए गए निर्णय को चुनौती देती है, जिसके अनुसार किसी भी वर्तमान उच्च न्यायालय या सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश के खिलाफ एफआईआर दर्ज करने से पहले सीजेआई से परामर्श करना अनिवार्य है।
"याचिकाकर्ता मानते हैं कि एफआईआर पंजीकरण को रोकने का निर्णय विशेष रूप से किसी भी व्यक्ति को आपराधिक कानूनों से मुक्त करने के लिए नहीं था। अधिकांश न्यायाधीश ईमानदारी का पालन करते हैं, लेकिन इस तरह की घटनाओं में आपराधिक प्रक्रिया का पालन आवश्यक है।"
याचिका में कहा गया है कि न्यायमूर्ति निर्मल यादव के मामले जैसे अन्य उदाहरण दिखाते हैं कि न्यायपालिका में जवाबदेही और कानूनी जांच आवश्यक है।
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याचिका में सवाल उठाया गया है कि इतनी बड़ी मात्रा में नकदी मिलने के बावजूद एफआईआर क्यों नहीं दर्ज की गई। इसमें जनता के बीच बढ़ते अविश्वास का भी उल्लेख किया गया है।
"आम जनता और मीडिया बार-बार पूछ रहे हैं— 14 मार्च को घटना के दिन एफआईआर क्यों नहीं दर्ज की गई? गिरफ्तारी क्यों नहीं हुई? जब्त करने की कार्रवाई क्यों नहीं की गई? आपराधिक कानून को लागू करने में इतनी देरी क्यों हुई?"
याचिकाकर्ता का तर्क है कि आंतरिक जांच समिति गठित करने के बजाय आपराधिक प्रक्रिया अपनानी चाहिए थी।
"न्यायपालिका द्वारा आंतरिक जांच प्रक्रिया को प्राथमिकता देना उसकी विश्वसनीयता को नुकसान पहुंचा सकता है और यदि न्यायमूर्ति वर्मा की सफाई सही है, तो उनकी प्रतिष्ठा भी दांव पर है।"
याचिका में यह भी तर्क दिया गया है कि के. वीरास्वामी निर्णय पुलिस को न्यायाधीशों के खिलाफ अपराधों की जांच करने से रोकता है।
"यह एक स्थापित सिद्धांत है कि राजा भी कानून से ऊपर नहीं है। हालांकि, के. वीरास्वामी मामले में दिए गए निर्णय से पुलिस को न्यायाधीशों के खिलाफ एफआईआर दर्ज करने से रोका जाता है, जो कानूनी सिद्धांतों के खिलाफ है।"
याचिका में यह भी दावा किया गया है कि यह निर्णय per incuriam (कानूनी मिसालों पर विचार किए बिना) और sub silentio (बिना चर्चा किए) दिया गया था, जिससे कानून प्रवर्तन एजेंसियों की भूमिका सीमित हो गई।
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सुप्रीम कोर्ट में दायर इस जनहित याचिका में निम्नलिखित अनुरोध किए गए हैं:
नकदी बरामदगी को संज्ञेय अपराध घोषित किया जाए – इसे अपराध मानते हुए भारतीय न्याय संहिता के तहत एफआईआर दर्ज की जाए।
के. वीरास्वामी प्रतिबंध को असंवैधानिक घोषित किया जाए – न्यायाधीशों के खिलाफ एफआईआर के लिए सीजेआई की अनुमति की आवश्यकता को असंवैधानिक ठहराया जाए।
आंतरिक समिति को अवैध घोषित किया जाए – यह घोषित किया जाए कि तीन-सदस्यीय समिति के पास जांच करने का कोई अधिकार नहीं है।
दिल्ली पुलिस को एफआईआर दर्ज करने का निर्देश दिया जाए – पुलिस को निष्पक्ष और प्रभावी जांच करने का आदेश दिया जाए।
हस्तक्षेप पर रोक लगाई जाए – न्यायिक या अन्य किसी भी प्राधिकरण को एफआईआर पंजीकरण और जांच में हस्तक्षेप करने से रोका जाए।
न्यायिक सुधार लागू किए जाएं – न्यायिक जवाबदेही सुनिश्चित करने के लिए न्यायिक मानक एवं जवाबदेही विधेयक, 2010 को पुनर्जीवित करने जैसे सुधारों को लागू किया जाए।
घटनाक्रम: प्रमुख तिथियां
- 14 मार्च – न्यायमूर्ति यशवंत वर्मा के निवास पर आग लग गई, जब वह शहर से बाहर थे।
- 15 मार्च – दिल्ली पुलिस ने दिल्ली उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश उपाध्याय को घटना की सूचना दी।
- 15 मार्च (शाम) – मुख्य न्यायाधीश ने जांच और रिपोर्ट तैयार करने का निर्देश दिया।
- 22 मार्च – सीजेआई ने तीन-सदस्यीय आंतरिक जांच समिति का गठन किया।
- 23 मार्च – सुप्रीम कोर्ट ने आग बुझाने का वीडियो और दिल्ली हाईकोर्ट की रिपोर्ट सार्वजनिक की।
- 24 मार्च – सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों के अनुसार न्यायमूर्ति वर्मा को न्यायिक कार्यों से हटा दिया गया।
न्यायमूर्ति वर्मा ने सभी आरोपों से इनकार किया है और दावा किया है कि नकदी बरामदगी की घटना उनके खिलाफ रची गई साजिश का हिस्सा है।
मामले का विवरण: श्री मैथ्यूज जे. नेडुमपारा एवं अन्य बनाम भारत का माननीय सर्वोच्च न्यायालय एवं अन्य