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निर्माणाधीन फ्लैट 'साझा आवास' नहीं हो सकता: बॉम्बे हाईकोर्ट का फैसला

Shivam Y.

बॉम्बे हाईकोर्ट ने कहा कि ऐसा फ्लैट जो अभी निर्माणाधीन है और दोनों पक्षों के कब्जे में नहीं है, उसे घरेलू हिंसा कानून के तहत 'साझा आवास' नहीं माना जा सकता। पूरी कानूनी दलील और निर्णय पढ़ें।

निर्माणाधीन फ्लैट 'साझा आवास' नहीं हो सकता: बॉम्बे हाईकोर्ट का फैसला

बॉम्बे हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में कहा है कि कोई फ्लैट जो अभी निर्माणाधीन है, भले ही पति-पत्नी के नाम पर संयुक्त रूप से पंजीकृत हो, उसे घरेलू हिंसा से महिलाओं के संरक्षण अधिनियम, 2005 (PWDV अधिनियम) के तहत 'साझा आवास' नहीं माना जा सकता। इसलिए, पति को ऐसे फ्लैट की किश्तें चुकाने का आदेश नहीं दिया जा सकता।

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यह फैसला न्यायमूर्ति मंजूषा देशपांडे ने श्रीनवती मुखर्जी बनाम महाराष्ट्र राज्य (रिट याचिका संख्या 424/2025) में सुनाया।

“इस मामले में कथित ‘साझा आवास’ का कब्जा अभी तक सौंपा नहीं गया है, किश्तें भी पूरी नहीं चुकाई गई हैं। ऐसे में पति को बची हुई किश्तें चुकाने या नियोक्ता को वेतन से कटौती कर बैंक में भुगतान करने का निर्देश देना उचित नहीं होगा।”
— न्यायमूर्ति मंजूषा देशपांडे

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मामले की पृष्ठभूमि

याचिकाकर्ता श्रीनवती मुखर्जी ने मई 2022 में घरेलू हिंसा की शिकायत दर्ज कराई थी, जिसमें उन्होंने पति प्रतीक ठुकराल द्वारा शारीरिक और मानसिक उत्पीड़न का आरोप लगाया। उन्होंने कोर्ट से मांग की कि उनके पति को मलाड (पश्चिम), मुंबई स्थित निर्माणाधीन फ्लैट की बची हुई दो किश्तें चुकाने का निर्देश दिया जाए, जो दोनों के नाम पर संयुक्त रूप से पंजीकृत था।

याचिकाकर्ता ने दावा किया कि यह फ्लैट PWDV अधिनियम की धारा 2(स) के तहत 'साझा आवास' है, और उन्होंने धारा 19(ड) और (ई) के तहत किश्तों के भुगतान हेतु संरक्षण आदेश की मांग की।

उन्होंने यह तर्क दिया:

  • वह फ्लैट की सह-मालिक हैं।
  • पति पहले ही अंतरिम भरण-पोषण और किराया देने में विफल रहे हैं।
  • निवास का अधिकार केवल वास्तविक नहीं, बल्कि रचनात्मक निवास को भी शामिल करता है।

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याचिकाकर्ता के वकील ने प्रभा त्यागी बनाम कमलेश देवी केस सहित विभिन्न फैसलों का हवाला देकर 'साझा आवास' की परिभाषा को विस्तृत रूप से प्रस्तुत किया।

प्रतिवादी के वकील राघवेंद्र मेहरोत्रा ने कड़ा विरोध किया और तर्क दिया:

“याचिकाकर्ता ने उस फ्लैट में कभी निवास नहीं किया, न ही कब्जा लिया गया। इसलिए, यह संपत्ति वैधानिक परिभाषा के अनुसार साझा आवास नहीं हो सकती।”
— प्रतिवादी के वकील

उन्होंने धारा 2(स) के अनुसार वास्तविक या कम से कम रचनात्मक कब्जे की आवश्यकता पर जोर दिया, जो इस मामले में नहीं था।

न्यायमूर्ति देशपांडे ने मजिस्ट्रेट और सत्र न्यायालय दोनों के पहले दिए गए आदेशों को बरकरार रखा, जिन्होंने याचिकाकर्ता की मांग को खारिज कर दिया था।

“जिस फ्लैट की बात की जा रही है वह अभी निर्माणाधीन है और न ही किसी पक्ष के कब्जे में है, और न ही कोई उसमें रहने की मंशा रखता है। इस आधार पर, यह संपत्ति साझा आवास नहीं मानी जा सकती।”
— बॉम्बे हाईकोर्ट

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अदालत ने यह भी माना कि DV अधिनियम एक कल्याणकारी कानून है जिसका उद्देश्य पीड़ितों को उनके निवास स्थान से निकाले जाने से सुरक्षा प्रदान करना है। लेकिन याचिकाकर्ता द्वारा मांगी गई राहत धारा 19 के अंतर्गत नहीं आती।

हाईकोर्ट ने याचिका को खारिज कर दिया और स्पष्ट किया कि याचिकाकर्ता द्वारा मांगी गई राहत DV अधिनियम के तहत नहीं दी जा सकती।

“सत्र न्यायालय का 19 अक्टूबर 2024 का आदेश गलत नहीं है। रिट याचिका खारिज की जाती है।”
— न्यायमूर्ति देशपांडे

केस का शीर्षक: श्रीनवती मुखर्जी बनाम महाराष्ट्र राज्य (रिट याचिका 424/2025)