अनावश्यक गिरफ्तारियों पर अंकुश लगाने की दिशा में एक महत्वपूर्ण टिप्पणी करते हुए आंध्र प्रदेश हाईकोर्ट ने गुरुवार को राज्य पुलिस को सुप्रीम कोर्ट द्वारा तय दिशानिर्देशों का कड़ाई से पालन करने की याद दिलाई। न्यायमूर्ति डॉ. वाई. लक्ष्मणा राव, के. विनायक द्वारा दायर अग्रिम जमानत याचिका पर सुनवाई कर रहे थे। यह मामला हाल ही में लागू किए गए भारतीय न्याय संहिता (BNS) और भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (BNSS) के प्रावधानों के अंतर्गत दर्ज किया गया है।
पीठ ने याचिका का निपटारा करते हुए इस बात पर जोर दिया कि अर्नेश कुमार बनाम बिहार राज्य और मोहम्मद असफाक आलम बनाम झारखंड राज्य मामलों में दिए गए सिद्धांतों का सख्ती से पालन किया जाए।
पृष्ठभूमि
यह मामला क्राइम नंबर 101/2025 से जुड़ा है, जो श्री सत्य साई जिले के पेनुगोंडा पुलिस स्टेशन में दर्ज हुआ था। याचिकाकर्ता, जिन्हें आरोपी संख्या 1 के रूप में नामित किया गया है, पर भारतीय न्याय संहिता की धारा 318(4) के तहत आरोप लगाए गए हैं - जो सात वर्ष से कम सजा वाले अपराधों से संबंधित है।
याचिकाकर्ता की ओर से अधिवक्ता पी. नरसिंहुलु ने दलील दी कि उनके मुवक्किल को मनमानी गिरफ्तारी का भय है, जबकि अपराध की प्रकृति गंभीर नहीं है। उन्होंने अदालत से अनुरोध किया कि भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 482 के तहत हस्तक्षेप करते हुए न्यायालय उनके अधिकारों की रक्षा करे।
राज्य की ओर से उपस्थित लोक अभियोजक (Public Prosecutor) ने कहा कि जांच अपने महत्वपूर्ण चरण में है और पुलिस कानून के अनुसार कार्रवाई कर रही है।
अदालत की टिप्पणियाँ
न्यायमूर्ति राव ने कहा कि याचिकाकर्ता पर लगाए गए आरोपों के आधार पर तत्काल या यांत्रिक गिरफ्तारी उचित नहीं है। उन्होंने कहा, “जब कानून खुद पर्याप्त सुरक्षा प्रदान करता है, तब पुलिस का यह कर्तव्य है कि वह व्यक्ति की स्वतंत्रता का सम्मान करे।”
पीठ ने अर्नेश कुमार के फैसले का हवाला देते हुए कहा:
“हमारा प्रयास यह सुनिश्चित करना है कि पुलिस अधिकारी अनावश्यक रूप से आरोपी को गिरफ्तार न करें और मजिस्ट्रेट बिना कारण हिरासत की अनुमति न दें।”
न्यायालय ने सुप्रीम कोर्ट के ‘चेकलिस्ट सिद्धांत’ की भी याद दिलाई, जिसके अनुसार प्रत्येक पुलिस अधिकारी को गिरफ्तारी से पहले कारण दर्ज करना होगा और उसे मजिस्ट्रेट के समक्ष प्रस्तुत करना होगा। यदि गिरफ्तारी नहीं की जाती है, तो वह निर्णय दो सप्ताह के भीतर मजिस्ट्रेट को भेजा जाना चाहिए।
मोहम्मद असफाक आलम के फैसले का उल्लेख करते हुए न्यायमूर्ति राव ने कहा कि अर्नेश कुमार का निर्णय केवल दहेज से संबंधित मामलों तक सीमित नहीं है, बल्कि उन सभी अपराधों पर लागू होता है जिनकी सजा सात वर्ष या उससे कम है।
कानूनी संदर्भ (सरल भाषा में)
भारतीय न्याय संहिता (BNS) और भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (BNSS) भारत के नए आपराधिक कानून ढांचे का हिस्सा हैं, जिन्होंने पुराने भारतीय दंड संहिता (IPC) और दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) को प्रतिस्थापित किया है। BNSS की धारा 35(3), जो पहले CrPC की धारा 41-A के समान है, यह प्रावधान करती है कि पुलिस को गंभीरता कम होने पर व्यक्ति को गिरफ्तार करने से पहले उपस्थिति का नोटिस देना चाहिए।
इस प्रावधान का उद्देश्य है कि अनावश्यक हिरासतों को कम किया जाए और यह सुनिश्चित किया जाए कि किसी नागरिक की स्वतंत्रता बिना कानूनी आधार के न छीनी जाए।
अदालत का निर्णय
दोनों पक्षों की दलीलें सुनने के बाद हाईकोर्ट ने सीधी अग्रिम जमानत नहीं दी, बल्कि पुलिस को संरक्षणात्मक दिशा-निर्देश जारी किए। न्यायमूर्ति राव ने जांच अधिकारी को निर्देश दिया कि वह BNSS की धारा 35(3) (पूर्व की CrPC की धारा 41-A) के अनुसार प्रक्रिया का सख्ती से पालन करें।
अदालत ने यह भी कहा कि अर्नेश कुमार और मोहम्मद असफाक आलम के मामलों में दिए गए दिशा-निर्देशों का शब्दशः पालन किया जाए। वहीं याचिकाकर्ता को जांच में पूर्ण सहयोग करने का निर्देश दिया गया।
असल में, अदालत ने एक संतुलन कायम किया - व्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा भी की और जांच की प्रक्रिया को भी बाधित नहीं किया। इस प्रकार मामला निपटाया गया, साथ ही राज्य की कानून व्यवस्था को यह सख्त संदेश भी दिया गया कि कानूनी प्रक्रिया को पुलिस विवेक से प्रतिस्थापित नहीं किया जा सकता।
Case Title: K. Vinayaka vs The State of Andhra Pradesh
Case Number: Criminal Petition No. 10919 of 2025
Date of Judgment: 30 October 2025 (Thursday)
Counsel for Petitioner: P. Narasimhulu, Advocate
Counsel for Respondent: Public Prosecutor