रांची, 8 दिसंबर - झारखंड हाई कोर्ट की एक तनावपूर्ण सुनवाई में, जब जस्टिस गौतम कुमार चौधरी ने 2013 के उस माओवादी हमले पर अंतिम आदेश पढ़ा जिसमें पाकुड़ एसपी अमरजीत बलिहार और पाँच पुलिस कर्मियों की जान गई थी, तो कोर्टरूम का माहौल बेहद गंभीर था। शहीद हुए जवानों के परिवार चुपचाप पीछे बैठकर वर्षों पुरानी इस कानूनी लड़ाई के फैसले का इंतज़ार कर रहे थे।
लेकिन परिणाम उतना सीधा नहीं आया, जितने की कई लोग उम्मीद कर रहे थे।
पृष्ठभूमि
घटना, जैसा कि कोर्ट रिकॉर्ड में दर्ज है, 2 जुलाई 2013 को हुई जब एसपी बलिहार की सुरक्षा टुकड़ी जंगल के पास घात लगाकर बैठे माओवादी समूह द्वारा अचानक गोलियों की बौछार में फंस गई। हमलावर MCC गुट से जुड़े बताए गए।
हमला बेहद क्रूर था - वाहनों में गोलियों के सैकड़ों छेद, और छह पुलिसकर्मियों की मौके पर या अस्पताल ले जाते समय मौत। पुलिस के हथियार, गोला-बारूद और यहां तक कि एसपी का बुलेटप्रूफ जैकेट भी लूट लिया गया।
पुलिस ने कई गिरफ्तारियाँ कीं। लंबी सुनवाई के बाद केवल दो सुखलाल (उर्फ प्रवीर दा) और सनातन बास्की (उर्फ ताला दा) दोषी पाए गए और ट्रायल कोर्ट ने उन्हें हत्या, राज्य के हथियार लूटने और अन्य गंभीर अपराधों के लिए फाँसी की सज़ा दी।
अपील के दौरान यह मामला डिवीजन बेंच में पहुँचा।
लेकिन वहीं आया मोड़।
एक जज ने पहचान संबंधी संदेह के आधार पर आरोपियों को बरी करने की राय दी। दूसरे जज ने फैसला दिया कि आरोप पूरी तरह साबित हैं और फांसी बरकरार रहनी चाहिए।
इस मतभेद से मामला आपराधिक प्रक्रिया संहिता के विशेष प्रावधान के तहत जस्टिस चौधरी के सामने फिर से आया।
न्यायालय की विचार प्रक्रिया व टिप्पणियाँ
जस्टिस चौधरी ने मुख्य गवाहों हमले में घायल तीन पुलिसकर्मियों की विश्वसनीयता पर विस्तृत विचार किया। उन्होंने कोर्ट में हमलावरों की पहचान की, दावा किया कि हमले के दौरान हमलावर एक-दूसरे को नाम से पुकार रहे थे।
कोर्ट ने टिप्पणी की:
“यह हमला केवल पुलिस पर नहीं, बल्कि राज्य की संप्रभु शक्ति पर था, जो कानून लागू करने वाली एजेंसियों के माध्यम से कार्य करती है।”
कोर्ट ने माना कि हमला बेहद सोची-समझी योजना के तहत किया गया और इसमें संदेह की कोई गुंजाइश नहीं कि यह राज्य तंत्र को झटका देने का प्रयास था।
फिर भी, साजिश (120B) के आरोप हटाए गए क्योंकि हमले की योजना को साबित करने का ठोस प्रमाण नहीं दिया गया था। और कोर्ट ने पाया कि कुछ कानूनी प्रावधान ट्रायल कोर्ट ने गलत लागू किए थे।
यह तथ्य निर्विवाद रहे:
- हमला हुआ
- एसपी और उनकी टीम की हत्या की गई
- पुलिस हथियार लूटे गए
- दोनों आरोपी उग्रवादी दस्ता का हिस्सा थे
मुख्य सवाल यह था: क्या “रेयरेस्ट ऑफ द रेयर” यानी सबसे विरल मामलों वाली फांसी की सजा संदेह की पूरी अनुपस्थिति के बिना दी जा सकती है?
निर्णय
यहीं फैसला अप्रत्याशित रूप से बदला। जस्टिस चौधरी ने कहा कि दो जजों की अलग राय “एक महत्वपूर्ण नरमी का आधार” है। उन्होंने कहा:
“फांसी की सजा की पुष्टि करना उचित नहीं होगा।”
इसलिए अदालत ने डेथ रेफरेंस खारिज कर दिया। दोनों आरोपियों की फांसी आजीवन कारावास में तब्दील कर दी गई, साथ में मामूली जुर्माना की सजा भी जोड़ी गई।
हालांकि, हत्या, हत्या की कोशिश, आर्म्स एक्ट और अन्य गंभीर अपराधों में सजा यथावत रखी गई। उनकी आजीवन सजा एक साथ चलेगी।
और इसके साथ ही अदालत ने आदेश सुनाया:
राज्य की फांसी की मांग अस्वीकृत। आपराधिक अपीलें सजा में संशोधन के साथ खारिज।
Case Title:- State of Jharkhand vs. Sukhlal & Sanatan Baski