केरल हाई कोर्ट का फैसला: लोक अदालत में समझौते के बाद आश्रित दोबारा मुआवज़ा नहीं मांग सकते, खदान हादसे का मामला

By Shivam Y. • September 28, 2025

केरल उच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया कि लोक अदालत में समझौता होने के बाद परिवार दोबारा श्रमिक मुआवजे का दावा नहीं कर सकते; खदान दुर्घटना मामले में सीमाएं स्पष्ट की गईं। - सिवन एवं अन्य बनाम राजू पी.वी. एवं ओरिएंटल इंश्योरेंस कंपनी लिमिटेड।

केरल हाई कोर्ट, एर्नाकुलम ने सोमवार, 22 सितंबर 2025 को एक अहम फैसला सुनाया। अदालत ने यह स्पष्ट किया कि मृतक श्रमिकों के परिवार लोक अदालत में समझौते के बाद दोबारा मुआवज़े का दावा नहीं कर सकते। यह मामला एक खदान कर्मचारी की मौत से जुड़ा था, जहाँ मृतक के माता-पिता ने लोक अदालत से राशि प्राप्त करने के बावजूद कर्मचारी मुआवज़ा अधिनियम, 1923 के तहत नया दावा दायर किया।

पृष्ठभूमि

अपीलकर्ता, सिवन और उनकी पत्नी विमला, ने जनवरी 2015 में अपने बेटे अम्बाडी को खो दिया था। अम्बाडी, मुवट्टुपुझा की एक खदान में हाइड्रोलिक लिफ्ट ऑपरेटर के तौर पर काम करते समय हादसे का शिकार हो गया। यह लिफ्ट खदान मालिक राजू पी.वी. की थी और ओरीएंटल इंश्योरेंस कंपनी से बीमित थी।

शुरुआत में दंपत्ति ने मुवट्टुपुझा तालुक विधिक सेवा प्राधिकरण में पूर्व-विवाद याचिका दायर की। 14 फरवरी 2015 को लोक अदालत में मामला निपट गया और उन्हें 10 लाख रुपये मिले। बाद में उन्होंने कर्मचारी मुआवज़ा आयुक्त के पास जाकर वैधानिक मुआवज़ा माँगा, जिसे 8,61,120 रुपये आंका गया था। लेकिन उनका दावा यह कहते हुए खारिज कर दिया गया कि वे पहले ही लोक अदालत में समझौता कर चुके हैं।

अदालत की टिप्पणियाँ

अपील की सुनवाई करते हुए न्यायमूर्ति एम.ए. अब्दुल हकीम ने विचार किया कि क्या लोक अदालत में समझौते के बाद आश्रित आयुक्त के पास दोबारा जा सकते हैं।

अपीलकर्ताओं का तर्क था कि कर्मचारी मुआवज़ा अधिनियम की धारा 8(1) नियोक्ताओं को सीधे भुगतान करने से रोकती है और यह भुगतान आयुक्त की प्रक्रिया के बाहर वैधानिक मुआवज़े का विकल्प नहीं हो सकता।

उनके वकील ने कहा कि,

"यदि परिवारों को केवल लोक अदालत के आधार पर मुआवज़े से वंचित किया जाता है तो धारा 8(1) का असली उद्देश्य ही खत्म हो जाएगा।"

दूसरी ओर, बीमा कंपनी ने कहा कि परिवार पहले ही 10 लाख रुपये ले चुका है, जो आयुक्त द्वारा तय राशि से अधिक है। उनके वकील का तर्क था कि एक बार जब कोई पक्ष विधिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम के तहत उपाय चुन लेता है, तो वह बाद में कर्मचारी मुआवज़ा अधिनियम का सहारा नहीं ले सकता। सुप्रीम कोर्ट के पुराने फैसलों का हवाला देते हुए उन्होंने "उपायों की चुनाव सिद्धांत" (Doctrine of Election of Remedies) पर ज़ोर दिया यानि एक साथ दो रास्तों पर नहीं चला जा सकता।

न्यायमूर्ति हकीम ने दोनों अधिनियमों के बीच टकराव पर टिप्पणी की। कर्मचारी मुआवज़ा अधिनियम प्रत्यक्ष समझौतों पर रोक लगाता है, लेकिन विधिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम, 1987 लोक अदालतों को वरीयता देता है। अदालत ने कहा,

"जब विवाद लोक अदालत जैसे न्यायिक निकाय में निपटा लिया गया है, तब दबाव या शोषण की बात नहीं उठती।"

उन्होंने आगे कहा,

"जब आश्रित पहले ही लोक अदालत के ज़रिये मुआवज़ा ले चुके हैं, तो वे दोबारा कर्मचारी मुआवज़ा अधिनियम के तहत दावा नहीं कर सकते। धारा 8(1) की रोक, लोक अदालत की धारा 22C की कार्यवाही पर लागू नहीं होती।"

फैसला

दोनों कानूनी प्रश्नों का उत्तर प्रतिवादियों के पक्ष में देते हुए अदालत ने अपील खारिज कर दी। न्यायमूर्ति हकीम ने निष्कर्ष निकाला कि अपीलकर्ताओं ने लोक अदालत से आयुक्त द्वारा तय मुआवज़े से अधिक राशि प्राप्त कर ली है, इसलिए उन्हें दोबारा दावा करने का अधिकार नहीं है।

यह फैसला लोक अदालत के निर्णयों की अंतिमता को मजबूत करता है और यह स्पष्ट करता है कि मृतक श्रमिकों के आश्रित अलग-अलग मंचों से दोहरी क्षतिपूर्ति नहीं ले सकते।

Case Title:- Sivan & Anr. v. Raju P.V. & The Oriental Insurance Company Ltd.

Case Number:- MFA (ECC) No. 27 of 2024

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