नई दिल्ली, नवंबर 2025 - सुप्रीम कोर्ट परिसर में इस सप्ताह एक असामान्य सा दृश्य देखने को मिला। कोर्ट के Centre for Research and Planning (CRP) ने चुपचाप एक 63-पृष्ठ का रिपोर्ट जारी किया, जिसमें पिछले पचहत्तर वर्षों में देश की सर्वोच्च अदालत ने जाति के बारे में कैसे बात की है, इसकी समीक्षा की गई है। यह दस्तावेज़ Report on Judicial Conceptions of Caste नाम से है। यह कोई फैसला नहीं है, लेकिन इसे पढ़ते हुए ऐसा लगता है कि अदालत ने खुद को आईना दिखा दिया हो-और वह प्रतिबिंब काफी जटिल है।
रिपोर्ट में संविधान पीठ के फैसलों-सबसे शुरुआती आरक्षण मामलों से लेकर पर्सनल लॉ विवादों तक-की भाषा को देखकर यह सामने आता है कि न्यायिक शब्दावली कभी सहानुभूति से भरी नजर आती है, तो कभी रूढ़िवादी धारणाओं को दोहराती है। एक अधिकारी, जो तैयारी में शामिल थे, ने धीरे से कहा, “अदालत निश्चित रूप से विकसित हुई है, लेकिन ये विरोधाभास इतने बड़े हैं कि इन्हें नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।”
रिपोर्ट का केंद्रीय निष्कर्ष बहुत स्पष्ट है-न्यायपालिका जाति को लेकर एकसमान समझ पर कभी नहीं रही। कई फैसलों में जाति को वंशानुगत, पेशों से जुड़ी, गहरे सामाजिक बहिष्कार वाली व्यवस्था के रूप में स्वीकार किया गया है। वहीं कुछ दूसरे फैसलों में, कभी-कभी उसी दौर में, जाति को “मूल रूप से कार्य-विभाजन” बताकर बाद में कठोर होने वाला बताया गया। रिपोर्ट के एक लेखक के मुताबिक, यह कथा “सदियों के दमन को हल्का कर देती है,” और यह भाव कई जगह दर्ज है।
रिपोर्ट आगे कुछ असहज करने वाली उपमाएँ भी बताती है-जहाँ न्यायाधीशों ने कभी दलितों की तुलना “हैंडिकैप्ड” प्रतिभागियों से की, या आरक्षण को “बैसाखी” कहा। रिपोर्ट कहती है कि ऐसा शब्द इस्तेमाल अनजाने में ही सही पर कलंक को मिटाने की बजाय उसे और मजबूत कर देता है। एक वरिष्ठ शोधकर्ता ने प्रेस ब्रीफिंग में साफ कहा, “अगर संविधान आरक्षण को Corrective Justice मानता है, तो उसे Handicap कहना शब्दावली की गलती है।”
शायद सबसे तीखे हिस्से “मेरिट” पर चर्चा वाले हैं। कई पुराने फैसलों में आरक्षण को स्वभाविक रूप से मानकों को कम करने वाला बताया गया। रिपोर्ट इसके उलट आधुनिक शोध का हवाला देती है जिसमें दिखाया गया है कि रेलवे या पब्लिक सेक्टर में आरक्षण लागू होने से प्रदर्शन में कमी नहीं आई-कई मामलों में सुधार हुआ। रिपोर्ट साफ कहती है, “मेरिट सामाजिक रूप से निर्मित होती है,” और इसे पढ़ते वक्त वकीलों की पंक्ति में हल्की खुसफुसाहट सुनाई दी।
एक और दिलचस्प हिस्सा जाति और धर्म से जुड़ा है। कुछ पीठों ने कहा कि जाति सिर्फ हिंदू धर्म का हिस्सा है। दूसरी ओर कई फैसलों ने ईसाइयों, मुसलमानों और सिखों में भी जाति-जैसी संरचनाएँ दर्ज कीं। रिपोर्ट कहती है कि यह अंतर केवल सैद्धांतिक नहीं है-यह तय करता है कि “पिछड़ापन” को अदालत कैसे समझती है।
रिपोर्ट कुछ प्रगतिशील पलों को भी सामने लाती है। कई प्रभावशाली सहमतिपूर्ण मतों में न्यायाधीशों ने इतिहासिक भेदभाव, जाति-पूर्वाग्रह तोड़ने के संवैधानिक कर्तव्य और गरिमा को समानता का केन्द्रीय आधार बताया। 2018 के एक उद्धरण को रिपोर्ट ने प्रमुखता से रखा है: “दमन से सुरक्षा और गरिमा के साथ जीवन जीने का अवसर-दलितों के लिए अस्तित्व का प्रश्न है।”
फिर भी ये प्रगतिशील क्षण पुराने पितृसत्तात्मक शब्दों के साथ मिले-जुले दिखते हैं - और रिपोर्ट इसे “भविष्य के न्यायिक प्रशिक्षण के लिए चुनौती” कहती है।
इस दस्तावेज़ की सबसे खास बात इसकी साफगोई है। सुप्रीम कोर्ट की अपनी संस्था CRP बहुत सावधानी से स्पष्ट करती है कि यह अध्ययन किसी न्यायाधीश की आलोचना नहीं है। यह केवल आग्रह है कि अदालतें ऐसी भाषा अपनाएँ जो संविधान की समानता की भावना से मेल खाती हो। रिलीज़ के बाद एक पर्यवेक्षक ने कहा, “अदालत का अपनी ही भाषा की समीक्षा करना दुर्लभ है। यह मोड़ साबित हो सकता है।”
अभी के लिए रिपोर्ट किसी सिफारिश पर समाप्त नहीं होती, बल्कि एक निमंत्रण पर-जजों, शोधकर्ताओं, और नीति-निर्माताओं से यह पूछते हुए कि अदालतों में जाति को किस तरह बोला जाए, इसे नए सिरे से सोचा जाए। और शायद यही फैसला सबसे महत्वपूर्ण है।
Title: Report on Judicial Conceptions of Caste
Document Type: Research Report (Not a Case / Not a Judgment)
Published By: Centre for Research and Planning (CRP), Supreme Court of India
Publication Date: November 2025
Authors:
- Dr. Anurag Bhaskar
- Dr. Farrah Ahmed
- Bhimraj Muthu
- Shubham Kumar