सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को बेंगलुरु में बैंगलोर डेवलपमेंट अथॉरिटी (BDA) की एक लेआउट से जुड़े पुराने भूमि विवाद में हस्तक्षेप करते हुए निजी अलॉटियों के पक्ष में दी गई निषेधाज्ञा को वापस ले लिया। अदालत ने साफ शब्दों में कहा कि जब ज़मीन की पहचान ही स्पष्ट न हो, तब किसी के कब्जे को संरक्षण नहीं दिया जा सकता। सुनवाई के दौरान दलीलें लंबी चलीं और पूरा विवाद साइट नंबर 66 तथा बार-बार बदले गए सर्वे नंबरों के इर्द-गिर्द घूमता रहा, जिसने अदालत में भी कई सवाल खड़े कर दिए।
पृष्ठभूमि
इस मामले की जड़ें 1990 के दशक की शुरुआत में जाती हैं। प्रतिवादियों के पिता ने वर्ष 1993 में BDA की नीलामी से एक साइट खरीदी थी, जिसके बाद एक समझौता और बाद में बिक्री विलेख निष्पादित हुआ। यह भूमि मूल रूप से उत्तर बेंगलुरु के केम्पापुर अग्रहार गांव में सर्वे नंबर 349/1 और 350/12 से जुड़ी बताई गई थी।
लेकिन कहानी यहीं खत्म नहीं होती। बाद में अपीलकर्ताओं द्वारा दायर एक रिट याचिका में यही अधिग्रहण रद्द कर दिया गया। अपीलकर्ताओं ने भूमि पर अपने पैतृक अधिकार का दावा किया था। बिक्री विलेख के कई साल बाद, और जब विवाद पहले ही अदालतों तक पहुंच चुका था, तब 2012 में BDA ने एक संशोधन विलेख (rectification deed) जारी किया, जिसमें सर्वे नंबर बदलकर 350/9, 350/10 और 350/11 कर दिए गए। इसी आधार पर प्रतिवादियों ने अपीलकर्ताओं को भूमि में हस्तक्षेप से रोकने के लिए स्थायी निषेधाज्ञा की मांग की।
ट्रायल कोर्ट ने इस दावे को स्वीकार नहीं किया और मुकदमा खारिज कर दिया। हालांकि, हाई कोर्ट ने BDA द्वारा कराए गए कथित सर्वे पर भरोसा करते हुए उस फैसले को पलट दिया। इसके बाद अपीलकर्ता सुप्रीम कोर्ट पहुंचे।
न्यायालय की टिप्पणियां
न्यायमूर्ति अहसानुद्दीन अमानुल्लाह और न्यायमूर्ति के. विनोद चंद्रन की पीठ प्रतिवादियों के बदलते रुख को लेकर खासा सशंकित नजर आई। अदालत ने ध्यान दिलाया कि इससे पहले भी प्रतिवादियों ने उसी साइट को लेकर अलग सर्वे नंबरों के साथ एक मुकदमा दायर किया था, और बाद में विवरण बदलकर नया मुकदमा दायर करने के लिए कोई अनुमति नहीं ली गई।
पीठ ने कहा, “प्रतिवादी साइट नंबर 66 की ज़मीन को मौके पर ठीक से पहचान तक नहीं सके।” अदालत ने यह भी रेखांकित किया कि संशोधन विलेख मूल आवंटन के लगभग बीस साल बाद बनाया गया और उसमें यह स्पष्ट नहीं किया गया कि इतनी बड़ी गलती आखिर हुई कैसे।
अदालत ने यह भी याद दिलाया कि आवंटन समझौते में दो साल के भीतर आवासीय भवन बनाने की शर्त थी, जिसे कभी पूरा नहीं किया गया। वर्ष 2012 में जब निषेधाज्ञा का मुकदमा दायर हुआ, तब भी वहां कोई मकान मौजूद नहीं था।
हाई कोर्ट द्वारा BDA के सर्वे पर भरोसा करने को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने कड़ा रुख अपनाया। पीठ ने कहा कि जिस कथित सर्वे रिपोर्ट पर भरोसा किया गया, उसमें न तो कोई आधिकारिक मुहर थी और न ही स्पष्ट हस्ताक्षर। रिपोर्ट तैयार करने वाले अधिकारी को अदालत में गवाही के लिए भी पेश नहीं किया गया। फैसले में कहा गया, “केवल दस्तावेज पेश कर देना ही प्रमाण नहीं होता।” अदालत ने यह भी जोड़ा कि अगर सर्वे हुआ भी हो, तो वह अपीलकर्ताओं को सुने बिना किया गया था और उसके आधार पर निषेधाज्ञा नहीं दी जा सकती।
निर्णय
सुप्रीम कोर्ट ने हाई कोर्ट के फैसले को रद्द करते हुए ट्रायल कोर्ट द्वारा मुकदमा खारिज किए जाने के आदेश को बहाल कर दिया। अदालत ने माना कि प्रतिवादी न तो अपने स्वामित्व को साबित कर पाए और न ही जिस भूमि का दावा किया जा रहा था, उसकी स्पष्ट पहचान कर सके। चूंकि अधिग्रहण पहले ही रद्द हो चुका था और संशोधन विलेख भी भरोसेमंद नहीं पाया गया, इसलिए कब्जे की रक्षा का कोई कानूनी आधार नहीं था। अपील स्वीकार की गई और इस स्तर पर निषेधाज्ञा का विवाद समाप्त हो गया।
Case Title: Obalappa and Others vs Pawan Kumar Bhihani and Others
Case No.: Civil Appeal arising out of SLP (C) No. 14966 of 2025
Case Type: Civil Appeal (Permanent Injunction / Property Dispute)
Decision Date: December 17, 2025