गुरुवार सुबह खचाखच भरी अदालत में सुप्रीम कोर्ट ने 2010 के ज्ञानेश्वरी एक्सप्रेस ट्रेन हादसे से जुड़े मामले में एक तीखा लेकिन संतुलित फैसला सुनाया। न्यायमूर्ति संजय करोल की अध्यक्षता वाली पीठ ने “जीवन की विनाशकारी हानि” को स्वीकार किया, लेकिन तीन साल से अधिक समय से ज़मानत पर चल रहे आरोपियों को वापस जेल भेजने से इनकार कर दिया। इसके बजाय अदालत ने लंबी देरी पर गहरी नाराज़गी जताई और UAPA मामलों की सुनवाई सुधारने के लिए व्यापक निर्देश जारी किए।
पृष्ठभूमि
यह मामला पश्चिम बंगाल के सरडिहा स्टेशन के पास हुए भयावह 2010 रेल हादसे से जुड़ा है, जिसमें 148 यात्रियों की मृत्यु हो गई थी। CBI का आरोप है कि यह कोई दुर्घटना नहीं, बल्कि एक चरमपंथी साज़िश के तहत की गई बर्बर तोड़फोड़ थी।
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आरोपियों-जिनमें कई स्थानीय निवासी थे-पर IPC, रेलवे अधिनियम और कठोर UAPA के तहत मामला दर्ज किया गया। इनमे से कई ने लगभग 12 वर्ष जेल में बिताए, इसके बाद 2022 और 2023 में कलकत्ता हाई कोर्ट ने ज़मानत दे दी।
जब CBI ने ज़मानत आदेशों को चुनौती दी, तो मामला 2025 में सुप्रीम कोर्ट पहुंचा। तब तक 204 में से 176 गवाहों को दर्ज किया जा चुका था, लेकिन 28 गवाह अभी भी शेष थे-एक ऐसी स्थिति जिसे पीठ ने आगे चलकर “कछुआ-चाल की तरह” बताया।
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अदालत की टिप्पणियाँ
सुनवाई के दौरान अदालत ने बार-बार यह सवाल उठाया कि 2010 का मामला अब तक क्यों लटका हुआ है। न्यायमूर्ति करोल ने तीखी टिप्पणी की: “यदि राज्य अपनी पूरी ताकत के बावजूद दोष मान लेता है, तो उसी राज्य को यह भी सुनिश्चित करना चाहिए कि मुकदमे समय पर खत्म हों।”
436-A लागू नहीं
अदालत ने सबसे पहले स्पष्ट किया कि हाई कोर्ट ने धारा 436-A (जिसमें अधिकतम सज़ा की आधी अवधि जेल में बिताने वाले विचाराधीन कैदियों को ज़मानत अनिवार्य है) का गलत प्रयोग किया। चूंकि इस मामले में अपराधों के लिए मृत्यु दंड की संभावना है, इसलिए यह धारा बिल्कुल लागू नहीं होती। पीठ ने कहा, “इस आधार पर आदेश में हस्तक्षेप आवश्यक है।”
अनुच्छेद 21 महत्वपूर्ण, पर अकेला आधार नहीं
दिलचस्प रूप से, अदालत ने यहां रुककर सीधे ज़मानत रद्द नहीं की। उसने माना कि गंभीर मामलों में भी अनुच्छेद 21 की सुरक्षा को अनदेखा नहीं किया जा सकता, लेकिन यह भी कहा कि यह “एकमात्र आधार नहीं हो सकता”। पीठ ने टिप्पणी की, “व्यक्तिगत स्वतंत्रता पवित्र है, लेकिन राष्ट्र की संप्रभुता और सुरक्षा भी उतनी ही महत्वपूर्ण है।”
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UAPA में रिवर्स बर्डन
अदालत ने UAPA में उल्टे सबूत भार पर काफी गंभीर और मानवीय दृष्टिकोण अपनाया। उसने माना कि जो व्यक्ति सालों जेल में रहता है, उसके लिए अपनी बेगुनाही साबित करने हेतु सबूत जुटाना बेहद कठिन है। अदालत ने कहा, “लोकतंत्र का कर्तव्य है कि आरोपितों को भी अपनी बेगुनाही साबित करने का वास्तविक अवसर मिले।”
ज़मानत रद्द क्यों नहीं की गई
हालाँकि अदालत ने हाई कोर्ट की तर्क-विधि को गलत पाया, फिर भी ज़मानत रद्द नहीं की क्योंकि:
- आरोपी तीन साल से अधिक समय से ज़मानत पर हैं और कोई दुरुपयोग नहीं पाया गया,
- राज्य यह नहीं दिखा पाया कि उन्होंने गवाहों को डराया या देरी की,
- और मुकदमा अब भी समाप्ति से काफी दूर है, जबकि घटना को 15 वर्ष बीत चुके हैं।
अदालत ने कहा, “समय के बीतने ने कई आशंकाओं को स्वतः समाप्त कर दिया है,” और अब उन्हें जेल भेजना “कोई ठोस उद्देश्य पूरा नहीं करेगा।”
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फैसला
सुप्रीम कोर्ट ने हाई कोर्ट की दलीलों को खारिज कर दिया, लेकिन ज़मानत को बरकरार रखा। इसके साथ ही उसने देशभर की अदालतों को UAPA मामलों की तेज़ सुनवाई के लिए कड़े दिशानिर्देश जारी किए-दैनिक सुनवाई, सीमित स्थगन, नियमित निगरानी और गरीब विचाराधीन कैदियों के लिए अनिवार्य कानूनी सहायता।
फैसले के अंतिम शब्दों में अदालत ने स्पष्ट किया कि देरी कभी भी ऐसी वजह नहीं बननी चाहिए जिसके कारण कोई व्यक्ति अनिश्चितकाल तक जेल में पड़ा रहे।
Case Title: Central Bureau of Investigation vs. Dayamoy Mahato & Others
Case No.: Criminal Appeal arising out of SLP (Crl.) Nos. 12376–12377 of 2023, 12656–12657 of 2023, and 2669 of 2024 CENTRAL BUREAU OF INVESTIGATION
Case Type: Criminal Appeal (Bail Challenge in UAPA & IPC Offences)
Decision Date: 11 December 2025









