सोमवार को सुप्रीम कोर्ट ने एक सख़्त टिप्पणी वाले आदेश में मध्य प्रदेश हाई कोर्ट का वह फैसला रद्द कर दिया, जिसमें हैबियस कॉर्पस याचिका के ज़रिये एक आरोपी को रिहा करने का निर्देश दिया गया था। सुनवाई के दौरान कुछ मिनट माहौल इतना तनावपूर्ण हुआ कि अदालत ने साफ़ कहा कि याचिकाकर्ता ने जो “असामान्य रास्ता” अपनाया, वह सही नहीं था। बेंच ने यह भी टिप्पणी की कि हाई कोर्ट की कार्यवाही “इस अदालत की अंतरात्मा को झकझोर देती है।”
यह मामला 2021 के एक धोखाधड़ी मामले में गिरफ्तार किए गए जीबराखन लाल साहू की हिरासत और रिहाई से जुड़ा था, जिस पर दोनों पक्षों ने समान तीखेपन से बहस रखी।
पृष्ठभूमि (Background)
यह पूरा मामला तब शुरू हुआ जब भोपाल के बागसेवनिया थाने में 2021 में एफआईआर नंबर 157/2021 दर्ज हुई। जीबराखन लाल साहू पर IPC की धारा 420 और 409 के तहत आरोप लगे। दिसंबर 2023 में उन्हें गिरफ्तार किया गया और फरवरी 2024 में चार्जशीट दायर हो गई।
इसके बाद जो हुआ, वह लगभग हड़बड़ी जैसा प्रयास था। जनवरी से मई 2024 के बीच साहू ने चार बार हाई कोर्ट में ज़मानत अर्जी लगाई। सभी खारिज हुईं-कुछ मेरिट पर, कुछ उन्होंने वापस ले लीं।
फिर एक नया मोड़ आया।
उनकी बेटी, कुसुम साहू, ने हैबियस कॉर्पस याचिका दायर कर दी-जो आम तौर पर गैरक़ानूनी गिरफ्तारी वाले मामलों में लगाई जाती है-और दावा किया कि उनके पिता की चालू हिरासत अवैध है। हाई कोर्ट ने यह दलील स्वीकार कर ली और 5,000 रुपये के निजी मुचलके पर रिहाई का आदेश दे दिया। यह आदेश कानूनी हलकों में तुरंत सवालों के घेरे में आ गया, क्योंकि न्यायिक आदेश के आधार पर हुई हिरासत को आमतौर पर “अवैध” नहीं माना जाता।
मध्य प्रदेश सरकार ने इस आदेश को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी, जिसने जुलाई 2025 में आदेश पर रोक लगा दी। इसके बावजूद आरोपी कई हफ्तों तक आत्मसमर्पण नहीं कर सका और आखिरकार 25 अक्टूबर 2025 को अदालत में प्रस्तुत हुआ।
अदालत के निष्कर्ष (Court’s Observations)
सुनवाई के दौरान जस्टिस राजेश बिंदल और जस्टिस मनमोहन की बेंच ने कोई नरमी नहीं दिखाई। एक बिंदु पर जस्टिस बिंदल ने टिप्पणी की-“हाई कोर्ट ने जिस तरह से अधिकार क्षेत्र का प्रयोग किया है, वह इस अदालत की अंतरात्मा को झकझोर देता है।”
बेंच ने कहा कि हाई कोर्ट ने चार बार ज़मानत याचिका खारिज होने के बावजूद उचित अपील के रास्ते की ओर निर्देश देने के बजाय, पूरी तरह मामले के मेरिट पर ऐसे सुनवाई की जैसे वह ज़मानत आदेश के खिलाफ अपील सुन रहा हो।
न्यायालय ने सरल शब्दों में समझाया कि हैबियस कॉर्पस का उपयोग न्यायालय द्वारा अनुमोदित हिरासत को पलटने के लिए नहीं किया जा सकता। बेंच ने स्पष्ट तौर पर कहा, “किसी आपराधिक मामले में न्यायिक हिरासत को अवैध नहीं कहा जा सकता, विशेषकर तब जब उसकी ज़मानत अर्ज़ियां खारिज हो चुकी हों।”
राज्य की ओर से कहा गया कि हाई कोर्ट का आदेश “पूर्णत: अधिकार क्षेत्र के बाहर” था। वहीं, प्रतिवादी की ओर से वकील ने ईमानदारी से स्वीकार किया कि “प्रक्रिया गलत थी, हालांकि राहत सही थी।” उन्होंने यह भी तर्क दिया कि उसी मामले के दो अन्य आरोपी नियमित ज़मानत पा चुके हैं, इसलिए साहू को भी वैसी ही छूट मिलनी चाहिए।
परंतु बेंच ने संतुलित रुख बनाए रखा। अदालत ने कहा कि आगे यदि साहू ज़मानत याचिका दायर करता है, तो संबंधित अदालत उसे स्वतंत्र रूप से मेरिट पर देखे-लेकिन हैबियस कॉर्पस का इस्तेमाल कर इस तरह की राहत नहीं दी जा सकती।
निर्णय (Decision)
सुनवाई खत्म करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने राज्य की अपील स्वीकार कर ली और हाई कोर्ट का 3 अक्टूबर 2024 का आदेश रद्द कर दिया। चूंकि आरोपी पहले से ही हिरासत में था, कोर्ट ने यह स्पष्ट कर दिया कि भविष्य में दी जाने वाली कोई भी ज़मानत याचिका “अपने स्वयं के गुण-दोष के आधार पर” तय की जाएगी।
और इसी के साथ, मामला ठीक वहीं समाप्त हुआ जहाँ सुप्रीम कोर्ट उसे ले जाना चाहता था-कानूनी प्रक्रिया को उसके सही रास्ते पर वापस लाते हुए।
Case Title: State of Madhya Pradesh vs. Kusum Sahu (Habeas Corpus–Misuse of Jurisdiction Case)
Court: Supreme Court of India
Bench: Justice Rajesh Bindal & Justice Manmohan
Type of Case: Criminal Appeal arising from a habeas corpus order
Appellant: State of Madhya Pradesh & Others
Respondent: Kusum Sahu (daughter of accused Jibrakhan Lal Sahu)
Date of Judgment: 03 November 2025