हाल ही में केंद्र सरकार ने घोषणा की कि अगली राष्ट्रीय जनगणना में जाति आधारित जानकारी भी शामिल की जाएगी। यह एक बड़ा नीतिगत बदलाव है क्योंकि भारत में आखिरी बार जाति आधारित जनगणना 1931 में, यानी स्वतंत्रता से पहले हुई थी। हालांकि, 2011 में एक सामाजिक-आर्थिक और जाति जनगणना (SECC) की गई थी, लेकिन उसकी रिपोर्ट कभी सार्वजनिक नहीं की गई।
इस संदर्भ में 2021 में सुप्रीम कोर्ट का वह आदेश याद किया जा रहा है, जिसमें उसने केंद्र को SECC 2011 की रिपोर्ट प्रकाशित करने का निर्देश देने से इनकार कर दिया था।
महाराष्ट्र सरकार ने संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत एक रिट याचिका दाखिल की थी, जिसमें केंद्र सरकार को SECC 2011 की कच्ची जातिगत जानकारी विशेष रूप से अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) से संबंधित जारी करने का अनुरोध किया गया था। यह जानकारी स्थानीय निकाय चुनावों में ओबीसी आरक्षण देने के उद्देश्य से मांगी गई थी। इससे पहले सुप्रीम कोर्ट ने 2021 में एक निर्णय में कहा था कि ओबीसी आरक्षण "त्रिस्तरीय परीक्षण" (triple tests) के बाद ही दिया जा सकता है, जिसमें पिछड़ेपन का तथ्यात्मक आंकड़ा एक महत्वपूर्ण हिस्सा है।
केंद्र सरकार ने महाराष्ट्र की याचिका का विरोध किया और कहा कि SECC रिपोर्ट में भारी त्रुटियां हैं और यह "गलत" व "अप्रयोग योग्य" है। केंद्र ने यह भी स्पष्ट किया कि SECC जनगणना की आधिकारिक प्रक्रिया का हिस्सा नहीं थी और यह ओबीसी सर्वेक्षण भी नहीं था। उन्होंने यह भी बताया कि 1951 के बाद से जातिगत आंकड़े एक नीति के तहत जनगणना से हटा दिए गए हैं।
महाराष्ट्र ने इसके जवाब में संसद में गृह मंत्रालय द्वारा दिए गए जवाब का हवाला दिया, जिसमें कहा गया था कि “98.87% जाति और धर्म संबंधित व्यक्तिगत डेटा त्रुटिरहित है।”
“केंद्र का तर्क था कि यह 98.87% का आंकड़ा या तो गलत है या किसी अन्य जानकारी पर आधारित है, न कि SECC की जातिगत जानकारी पर।”
दिसंबर 2021 में सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र की इस दलील को स्वीकार कर लिया और कोई निर्देश जारी करने से इनकार कर दिया। कोर्ट ने कहा कि जब सरकार ने हलफनामे में यह कहा है कि SECC 2011 की जानकारी “गलत और किसी भी उद्देश्य के लिए अनुपयोगी” है, तब उसे रिपोर्ट जारी करने का आदेश नहीं दिया जा सकता।
“अगर ऐसा आदेश दिया गया तो इससे और अधिक भ्रम और अनिश्चितता पैदा होगी,” कोर्ट ने कहा।
यह निर्णय न्यायमूर्ति ए.एम. खानविलकर और न्यायमूर्ति सी.टी. रविकुमार की पीठ ने सुनाया था।
"कोर्ट के समक्ष प्रस्तुत हलफनामे में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि एकत्र किया गया डेटा सटीक नहीं है और किसी भी उद्देश्य के लिए अनुपयोगी है। जब उत्तरदाता यही रुख अपना रहे हैं, तो हम समझ नहीं पाते कि कैसे उनके खिलाफ कोई आदेश जारी किया जा सकता है… ऐसा निर्देश और अधिक भ्रम व अनिश्चितता को जन्म देगा,” कोर्ट ने कहा।
कोर्ट ने आगे कहा कि भले ही राज्य सरकार को ओबीसी आरक्षण देने के लिए ट्रिपल टेस्ट पूरा करना आवश्यक है, लेकिन केंद्र को ऐसी रिपोर्ट जारी करने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता, जिसे वह स्वयं गलत बता रहा है।
“महाराष्ट्र सरकार को SECC 2011 की जानकारी का उपयोग स्थानीय निकाय चुनावों में आरक्षण के लिए करने की अनुमति नहीं दी जा सकती,” कोर्ट ने स्पष्ट किया।
यह फैसला आज भी महत्वपूर्ण है क्योंकि अब देश एक नई जातिगत जनगणना की तैयारी कर रहा है। ऐसे आंकड़ों को लेकर कानूनी और राजनीतिक बहस लगातार जारी है।