बॉम्बे हाईकोर्ट ने एक अहम फैसले में कहा है कि पिता की मृत्यु के बाद, मां बच्चे की स्वाभाविक अभिभावक होती है, भले ही बच्चा लंबे समय से दादा-दादी के पास रह रहा हो। कोर्ट ने जिला न्यायाधीश द्वारा मां को अंतरिम अभिरक्षा देने से इनकार करने के आदेश को रद्द कर दिया और निर्देश दिया कि बच्ची को मां को सौंपा जाए।
न्यायमूर्ति एस.जी. चपलगांवकर ने यह फैसला पार्वती नामक महिला द्वारा दायर याचिका पर सुनाया। पार्वती ने जिला न्यायालय के उस आदेश को चुनौती दी थी, जिसमें उसकी 5½ साल की बेटी सान्वी की अंतरिम अभिरक्षा देने से इनकार कर दिया गया था।
बच्ची के पिता विट्ठल शिंदे का जनवरी 2025 में निधन हो गया था। वे 2024 में पत्नी पार्वती से आपसी सहमति से तलाक ले चुके थे और बच्ची की अभिरक्षा उन्होंने अपने पास रखी थी, जिसकी देखरेख का वचन दादी ने अदालत में दिया था। विट्ठल की मृत्यु के बाद बच्ची अपने दादा-दादी के साथ रहने लगी, जिन्होंने बच्ची की कानूनी अभिरक्षा के लिए याचिका दायर की। इसी के जवाब में मां पार्वती ने भी बच्ची की अभिरक्षा की मांग की, जिसे जिला न्यायाधीश ने खारिज कर दिया था।
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हाईकोर्ट ने यह साफ किया कि हिंदू अल्पसंख्यक और संरक्षक अधिनियम, 1956 की धारा 6 के तहत, अविवाहित लड़की की प्राकृतिक अभिभावक पहले पिता और उसके बाद मां होती है। कोर्ट ने कहा:
“कानूनी रूप से, नाबालिग लड़की की अभिरक्षा मां को दी जानी चाहिए, जब तक यह साबित न हो जाए कि वह उसके हितों के लिए अनुपयुक्त है या उसकी भलाई के लिए खतरा है।”
कोर्ट ने यह भी कहा कि भले ही दादा-दादी ने बच्चे की वर्षों तक देखभाल की हो, इससे मां के अधिकार पर कोई असर नहीं पड़ता।
“सिर्फ इसलिए कि बच्चे की देखरेख दादा-दादी या अन्य रिश्तेदारों ने की हो, मां के अभिभावक होने के अधिकार को नकारा नहीं जा सकता, जब तक यह साबित न हो कि बच्ची की भलाई को खतरा है।”
कोर्ट ने यह भी माना कि मां अब खुद का व्यवसाय चला रही हैं और उनके पास पर्याप्त आमदनी है जिससे वह बच्ची का पालन-पोषण कर सकती हैं। वहीं, दादा-दादी ग्रामीण क्षेत्र में रहते हैं जहां शिक्षा की सुविधाएं सीमित हैं, जबकि मां नांदेड में हैं जहां बेहतर शिक्षा उपलब्ध है।
हालांकि, कोर्ट ने बच्ची और दादा-दादी के भावनात्मक संबंधों को मान्यता देते हुए निर्देश दिया कि मां को जिला न्यायाधीश के समक्ष एक शपथपत्र देना होगा कि वह दादा-दादी को हर शनिवार, रविवार, त्योहारों और छुट्टियों के दौरान बच्ची से मिलने और ले जाने की अनुमति देंगी।
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इस फैसले में कोर्ट ने यह भी कहा:
“जैसे-जैसे बच्चा बड़ा होता है, अभिरक्षा बदलना और कठिन हो जाता है। इसलिए, यदि मां के खिलाफ कोई प्रतिकूल तथ्य रिकॉर्ड पर नहीं हैं, तो उसे अभिरक्षा देने से रोका नहीं जा सकता।”
न्यायालय ने स्पष्ट किया कि यह आदेश केवल अंतरिम अभिरक्षा तक सीमित है और अंतिम फैसला जिला न्यायालय बिना किसी पूर्वाग्रह के लेगा।
केस का शीर्षक: पार्वती @ स्वाति बनाम व्यंकट एवं अन्य [रिट याचिका संख्या 6529/2025]