जम्मू-कश्मीर हाई कोर्ट ने स्पष्ट किया है कि एक शिकायतकर्ता, जो संज्ञेय अपराध की शिकायत कर रहा है, उसे पहले पुलिस के पास एफआईआर दर्ज कराने के लिए जाने की जरूरत नहीं है। बल्कि, वह सीधे दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 200 के तहत मजिस्ट्रेट के पास आपराधिक शिकायत दर्ज करा सकता है। अदालत ने जोर देकर कहा कि ऐसी प्रक्रिया कानूनी रूप से वैध है, और मजिस्ट्रेट शिकायत के आधार पर संज्ञान ले सकता है।
जस्टिस संजय धर ने कहा:
"पुलिस के पास जाने के बजाय मजिस्ट्रेट के पास सीधे आपराधिक शिकायत दर्ज कराने में कोई रोक नहीं है, भले ही मामले में संज्ञेय अपराध शामिल हों।"
यह फैसला एक याचिका के जवाब में आया, जिसमें भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 420 (धोखाधड़ी) और 506 (आपराधिक धमकी) के तहत आरोपी के खिलाफ ट्रायल कोर्ट द्वारा जारी किए गए समन को चुनौती दी गई थी।
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मामले की पृष्ठभूमि
शिकायतकर्ता, अमानुल्ला खान, ने आरोप लगाया कि याचिकाकर्ता, गुलाम मोहम्मद पायर, ने खुद को एक भाजपा कार्यकर्ता के रूप में पेश किया और सरकारी नौकरियों का वादा करके उसके रिश्तेदारों से पैसे लिए। मई से सितंबर 2020 के बीच, याचिकाकर्ता ने 18,58,000 रुपये नकद और अतिरिक्त 20,000 रुपये बैंक ट्रांसफर के माध्यम से वसूले। हालांकि, कोई नौकरी नहीं दी गई, और जब शिकायतकर्ता ने पैसे वापस मांगे, तो याचिकाकर्ता ने उसे मारने की धमकी दी।
ट्रायल मजिस्ट्रेट ने प्रारंभिक साक्ष्य दर्ज करने के बाद अपराधों का संज्ञान लिया और याचिकाकर्ता के खिलाफ प्रक्रिया शुरू की। याचिकाकर्ता ने इस आदेश को चुनौती देते हुए तर्क दिया कि:
- विवाद पूरी तरह से वित्तीय था और इसमें आपराधिक इरादा नहीं था।
- शिकायतकर्ता को मजिस्ट्रेट के पास शिकायत दर्ज कराने से पहले सीआरपीसी की धारा 154 के तहत पुलिस के पास जाना चाहिए था।
- मजिस्ट्रेट ने समन जारी करने से पहले सीआरपीसी की धारा 202 के तहत प्रारंभिक जांच नहीं की।
- मजिस्ट्रेट ने बिना उचित विचार किए यांत्रिक तरीके से कार्यवाही की।
अदालत के अवलोकन और फैसला
1. शिकायत में धोखाधड़ी के अपराध की स्पष्ट झलक
अदालत ने कहा कि शिकायत में झूठे दावों और धोखे के विशिष्ट आरोप शामिल थे, जो आईपीसी की धारा 420 के तहत धोखाधड़ी के अपराध को प्राइमा फेसी स्थापित करते हैं। यह तर्क कि यह केवल एक वित्तीय लेन-देन था, खारिज कर दिया गया।
2. शिकायतकर्ता को मजिस्ट्रेट के पास सीधे जाने का विकल्प
अदालत ने माना कि एक शिकायतकर्ता के पास विकल्प होता है कि वह सीआरपीसी की धारा 154 के तहत पुलिस के पास एफआईआर दर्ज कराए या सीआरपीसी की धारा 200 के तहत सीधे मजिस्ट्रेट के पास शिकायत दर्ज कराए। पुलिस के पास पहले जाने की कोई कानूनी आवश्यकता नहीं है।
3. धारा 202 सीआरपीसी के तहत प्रारंभिक जांच अनिवार्य नहीं
याचिकाकर्ता ने ललिता कुमारी बनाम यूपी सरकार (2014) के फैसले का हवाला देते हुए तर्क दिया कि प्रारंभिक जांच जरूरी थी। हालांकि, अदालत ने स्पष्ट किया:
"सीआरपीसी की धारा 202 तभी लागू होती है जब मजिस्ट्रेट को आगे बढ़ने के बारे में संदेह हो। अगर शिकायत और प्रारंभिक साक्ष्य स्पष्ट रूप से अपराध को दर्शाते हैं, जैसा कि इस मामले में है, तो आगे की जांच जरूरी नहीं है।"
4. मजिस्ट्रेट ने समन जारी करते समय न्यायिक विचार किया
हालांकि मजिस्ट्रेट का आदेश संक्षिप्त था, लेकिन इसमें गवाहों के बयानों और शिकायत की सामग्री का उल्लेख किया गया था, जो उचित न्यायिक समीक्षा को दर्शाता है। अदालत ने अनिल कुमार बनाम एम.के. अय्यप्पा (2013) और पेप्सी फूड्स लिमिटेड बनाम स्पेशल जुडिशियल मजिस्ट्रेट (1998) का हवाला देते हुए कहा कि आदेश में उचित विचार झलकता है।
मामले का नाम: गुलाम मोहम्मद पायर बनाम अमानुल्ला खान, सीआरएम(एम) संख्या 389/2025
उपस्थिति:
श्री तारिक अहमद लोन, अधिवक्ता याचिकाकर्ता की ओर से।