सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में गम्भीर आपराधिक मामले में दोषी ठहराए गए व्यक्ति को बरी कर दिया, जिसे पहले निचली अदालत और उच्च न्यायालय ने मौत की सजा दी थी। यह मामला उत्तर प्रदेश के एक गांव में छह पारिवारिक सदस्यों की निर्मम हत्या से जुड़ा था।
"अभियोजन पक्ष के मामले में इतने बड़े छेद हैं कि उन्हें भरा नहीं जा सकता," अदालत ने टिप्पणी की।
सुप्रीम कोर्ट की तीन-न्यायाधीशों की पीठ, जिसमें जस्टिस विक्रम नाथ, संजय करोल और संदीप मेहता शामिल थे, ने पाया कि इस मामले में की गई पुलिस जांच त्रुटिपूर्ण थी और अभियोजन पक्ष यह साबित करने में असफल रहा कि आरोपी ने अपराध किया था।
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अभियोजन पक्ष ने आरोपी के खिलाफ तीन मुख्य बिंदुओं— मकसद (मोटिव), अंतिम बार देखे जाने (लास्ट सीन), और बरामदगी (रिकवरी)— पर अपना केस बनाया था, लेकिन ये तीनों बिंदु अदालत में टिक नहीं पाए।
1. मकसद साबित नहीं हुआ
अभियोजन पक्ष ने दावा किया कि आरोपी का अपने भाई के साथ जमीन के बंटवारे को लेकर विवाद था, लेकिन इस संबंध में कोई ठोस सबूत पेश नहीं किया गया। न ही जमीन की बिक्री से संबंधित कोई दस्तावेज अदालत में प्रस्तुत किए गए।
"केवल एक गवाह के बयान के आधार पर किसी को दोषी नहीं ठहराया जा सकता। अभियोजन पक्ष को ठोस सबूत देने होंगे, न कि केवल आरोप लगाने होंगे," सुप्रीम कोर्ट ने कहा।
2. ‘अंतिम बार देखे जाने’ का सिद्धांत कमजोर
गवाहों के अनुसार, आरोपी को घटना की रात से कई घंटे पहले देखा गया था। सुप्रीम कोर्ट ने इसे संदिग्ध मानते हुए कहा कि गवाह की गवाही अतिशयोक्तिपूर्ण और अविश्वसनीय लगती है।
"यदि आरोपी घटना से कई घंटे पहले कहीं देखा गया था, तो इसे निर्णायक प्रमाण नहीं माना जा सकता कि वही अपराधी है।"
3. बरामदगी (रिकवरी) पर संदेह
पुलिस ने हत्या में इस्तेमाल किए गए हथियार आरोपी के घर से बरामद किए जाने का दावा किया था, लेकिन फॉरेंसिक रिपोर्ट में यह नहीं बताया गया कि हथियारों पर मिले खून का समूह (ब्लड ग्रुप) मृतकों से मेल खाता था या नहीं।
"अकेले बरामदगी को साक्ष्य नहीं माना जा सकता जब तक कि इसे वैज्ञानिक प्रमाणों से समर्थित न किया जाए," अदालत ने कहा।
सुप्रीम कोर्ट ने जांच एजेंसी की कार्यप्रणाली की कड़ी आलोचना की।
कोई स्वतंत्र गवाह नहीं लिया गया – पुलिस ने केवल पारिवारिक गवाहों पर भरोसा किया, जो हितधारक (interested witnesses) थे।
फॉरेंसिक जांच की खामियां – बरामद वस्तुओं की सही तरीके से जांच नहीं कराई गई।
अभियोजन की लचर पैरवी – अभियोजन पक्ष के गवाहों के बयान विरोधाभासी थे।
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"इतने बड़े अपराध की जांच इतने लापरवाह तरीके से करना न केवल अभियोजन की विफलता को दर्शाता है, बल्कि आरोपी के मौलिक अधिकारों का भी उल्लंघन है," न्यायालय ने कहा।
अदालत ने यह मानते हुए कि अभियोजन पक्ष आरोपी के खिलाफ अपराध को संदेह से परे साबित करने में असफल रहा, दोषसिद्धि को रद्द कर दिया और आरोपी को तत्काल जेल से रिहा करने का आदेश दिया।
"अदालत केवल संभावना (probability) के आधार पर किसी को दोषी नहीं ठहरा सकती। यह संदेह से परे साबित होना चाहिए, न कि अटकलों पर आधारित होना चाहिए," सुप्रीम कोर्ट का फैसला।