भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने हाल ही में फैसला सुनाया कि मजिस्ट्रेट को यह अधिकार नहीं है कि वह पुलिस को किसी व्यक्ति का नाम आरोप पत्र में जोड़ने का निर्देश दे। इसके बजाय, यदि अदालत को पर्याप्त आधार मिलते हैं, तो वह प्रस्तावित अभियुक्त को समन जारी कर सकती है। यह ऐतिहासिक निर्णय आपराधिक मामलों में अभियुक्त जोड़ने की कानूनी प्रक्रिया को स्पष्ट करता है।
न्यायमूर्ति अहसानुद्दीन अमानुल्लाह और न्यायमूर्ति प्रशांत कुमार मिश्रा की पीठ ने इस मामले में निर्णय सुनाया, जहां याचिकाकर्ता को मजिस्ट्रेट के निर्देश पर पुलिस के आरोप पत्र में शामिल किया गया था। छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय ने इस आदेश को बरकरार रखा था, जिसके खिलाफ याचिकाकर्ता ने सुप्रीम कोर्ट का रुख किया।
मामले की पृष्ठभूमि
यह मामला गोपाल प्रधान बनाम छत्तीसगढ़ राज्य एवं अन्य से संबंधित था। याचिकाकर्ता गोपाल प्रधान ने छत्तीसगढ़ के महासमुंद जिले के पिथौरा स्थित प्रथम श्रेणी न्यायिक मजिस्ट्रेट द्वारा 13 अप्रैल 2018 को पारित आदेश को चुनौती दी थी। इस आदेश में मजिस्ट्रेट ने अभियुक्त के रूप में उनके और एक अन्य व्यक्ति के नाम को आरोप पत्र में शामिल करने का निर्देश दिया था।
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याचिकाकर्ता ने तर्क दिया कि उच्च न्यायालय ने मजिस्ट्रेट के निर्देश को बरकरार रखकर गलती की है। उन्होंने यह भी कहा कि दंड प्रक्रिया संहिता (Cr.P.C.) में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है जो मजिस्ट्रेट को पुलिस को किसी व्यक्ति को आरोप पत्र में जोड़ने का निर्देश देने की अनुमति देता हो। पुलिस ने अपनी जांच पूरी करने के बाद अंतिम रिपोर्ट (Final Report) प्रस्तुत की थी, जिसमें याचिकाकर्ता का नाम नहीं था। इसके बावजूद, मजिस्ट्रेट ने न केवल उनके नाम को आरोप पत्र में शामिल करने का निर्देश दिया, बल्कि उनके खिलाफ समन भी जारी किया।
सुप्रीम कोर्ट ने याचिकाकर्ता की दलील को स्वीकार करते हुए कहा कि न्यायिक मजिस्ट्रेट के पास पुलिस को आरोप पत्र में नाम जोड़ने का अधिकार नहीं है। इसके बजाय, यदि मजिस्ट्रेट को पर्याप्त सबूत मिलते हैं, तो उन्हें अपराध का संज्ञान लेकर सीधे समन जारी करना चाहिए।
"हम याचिकाकर्ता के अधिवक्ता की दलील में कुछ तकनीकी तर्क पाते हैं। अदालत को पुलिस द्वारा प्रस्तुत अंतिम रिपोर्ट से असहमति जताने और अपराध का संज्ञान लेने का अधिकार है, भले ही पुलिस ने किसी व्यक्ति को मुकदमे के लिए नहीं भेजा हो।"
अदालत ने आगे स्पष्ट किया:
"ऐसे मामलों में, अदालत को अभियुक्त के रूप में नाम जोड़ने के निर्देश देने के बजाय सीधे समन जारी करना चाहिए। इस प्रकार, अंतिम परिणाम वही रहता है - अदालत द्वारा संज्ञान लेने के बाद व्यक्ति अभियुक्त के रूप में सूचीबद्ध होता है और समन जारी किया जाता है।"
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हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने माना कि मजिस्ट्रेट द्वारा अपनाई गई प्रक्रिया त्रुटिपूर्ण थी, लेकिन अदालत ने यह भी स्पष्ट किया कि अंतिम परिणाम – समन जारी करना – कानूनी रूप से वैध था। इसलिए, अदालत ने उच्च न्यायालय के निर्णय में हस्तक्षेप करने से इनकार कर दिया और विशेष अनुमति याचिका (Special Leave Petition) को खारिज कर दिया।
"इस प्रकार, आदेश जो मूल रूप से अभियुक्त के रूप में समन जारी करने से संबंधित है, उसे गलत नहीं ठहराया जा सकता।"
यह निर्णय आपराधिक मामलों में मजिस्ट्रेट के अधिकारों से संबंधित एक महत्वपूर्ण कानूनी दृष्टांत स्थापित करता है। इस फैसले के प्रमुख निष्कर्ष निम्नलिखित हैं:
- मजिस्ट्रेट पुलिस को आरोप पत्र में किसी व्यक्ति को जोड़ने का निर्देश नहीं दे सकता।
- यदि पर्याप्त आधार हैं, तो मजिस्ट्रेट को समन जारी करना चाहिए।
- भले ही मजिस्ट्रेट ने गलत तरीके से पुलिस को निर्देश दिया हो, लेकिन समन जारी करना कानूनी रूप से मान्य रहेगा।
- पुलिस की अंतिम रिपोर्ट अदालत पर बाध्यकारी नहीं है, और मजिस्ट्रेट स्वतंत्र रूप से संज्ञान ले सकता है।
याचिकाकर्ता के अधिवक्ता: श्री अभिनव श्रीवास्तव (AOR), श्री बजरंग अग्रवाल (अधिवक्ता), श्रीमती उन्नति वैभव (अधिवक्ता)।
केस का शीर्षकः गोपाल प्रधान बनाम छत्तीसगढ़ राज्य एवं अन्य।