हाल ही में, सुप्रीम कोर्ट ने दण्ड प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा 156(3) के तहत शक्तियों का उपयोग करते समय न्यायिक दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता पर बल दिया। ओम प्रकाश अंबाडकर बनाम महाराष्ट्र राज्य एवं अन्य मामले में, कोर्ट ने स्पष्ट किया कि मजिस्ट्रेट को पुलिस जांच के आदेश देने से पहले पूरी तरह से विचार करना चाहिए।
इसके अलावा, भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (BNSS), 2023 में धारा 175(3) को शामिल किया गया है, जो एफआईआर दर्ज करने में जवाबदेही सुनिश्चित करता है।
सुप्रीम कोर्ट के अवलोकन: धारा 156(3) CrPC
कोर्ट ने धारा 156(3) CrPC के यांत्रिक (mechanical) उपयोग की आलोचना की और कहा कि मजिस्ट्रेट को "सिर्फ पोस्ट ऑफिस" की तरह काम नहीं करना चाहिए, बल्कि न्यायिक मस्तिष्क (judicial mind) का उपयोग करना चाहिए।
जांच केवल आवश्यक होने पर ही होनी चाहिए – यदि मामला सरल है, तो कोर्ट को स्वयं सुनवाई करनी चाहिए और पुलिस को अनावश्यक रूप से शामिल नहीं करना चाहिए।
सरल मामलों में सीधे मुकदमे की प्रक्रिया अपनाई जाए – यदि शिकायत में आरोप स्पष्ट हैं, तो मजिस्ट्रेट को पुलिस को जांच के लिए नहीं भेजना चाहिए, बल्कि स्वयं सबूत दर्ज करके मुकदमा आगे बढ़ाना चाहिए।
तर्कसंगत आदेश (Reasoned Order) आवश्यक हैं – मजिस्ट्रेट को यह तय करना होगा कि क्या शिकायत में किसी संज्ञेय अपराध (cognizable offense) के तत्व मौजूद हैं या नहीं।
"मजिस्ट्रेट को यांत्रिक रूप से पुलिस जांच का आदेश नहीं देना चाहिए, बल्कि पहले यह जांच करनी चाहिए कि क्या वास्तव में राज्य मशीनरी द्वारा जांच आवश्यक है।" – सुप्रीम कोर्ट
इस मामले में, बॉम्बे हाईकोर्ट, नागपुर पीठ ने मजिस्ट्रेट के आदेश को बरकरार रखा था, जिसमें एफआईआर दर्ज करने का निर्देश दिया गया था। सुप्रीम कोर्ट ने पाया कि शिकायतकर्ता द्वारा लगाए गए आरोप संविधानिक और कानूनी मानकों को पूरा नहीं करते थे।
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मामले का विश्लेषण: सुप्रीम कोर्ट ने एफआईआर आदेश क्यों निरस्त किया?
शिकायतकर्ता, जो कि एक वकील थे, ने दावा किया कि उन्हें एक पुलिस अधिकारी द्वारा अपमानित और प्रताड़ित किया गया था। पुलिस द्वारा एफआईआर दर्ज करने से इनकार किए जाने पर, उन्होंने धारा 156(3) CrPC के तहत मजिस्ट्रेट के पास आवेदन किया, जिसे मजिस्ट्रेट ने स्वीकृत कर लिया।
धारा 294 IPC (अश्लील कृत्य और गाने) – कोर्ट ने स्पष्ट किया कि सिर्फ गाली-गलौज करना इस धारा के तहत अपराध नहीं माना जा सकता।
धारा 504 और 506 IPC (जानबूझकर अपमान और आपराधिक धमकी) – केवल अपमानजनक या धमकीपूर्ण शब्दों का उपयोग करने से यह अपराध साबित नहीं होता।
धारा 500 IPC (मानहानि) – यह एक ग़ैर-संज्ञेय अपराध (non-cognizable offense) है, जिसके लिए आमतौर पर सीधे मजिस्ट्रेट के समक्ष शिकायत की जाती है।
"सिर्फ अपमानजनक, अपमानसूचक या मानहानिकारक शब्दों का उपयोग करना धारा 294 IPC के तहत अपराध की श्रेणी में नहीं आता।" – सुप्रीम कोर्ट
कोर्ट ने निष्कर्ष निकाला कि मजिस्ट्रेट ने यांत्रिक रूप से निर्णय लिया और यह सुनिश्चित नहीं किया कि क्या आरोपों की पुलिस जांच आवश्यक थी या नहीं।
बीएनएसएस धारा 175(3) ने नई सुरक्षा व्यवस्था कैसे जोड़ी?
भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (BNSS), 2023 ने CrPC की धारा 156(3) को धारा 175(3) से अद्यतन (update) किया है, जिससे मजिस्ट्रेट द्वारा एफआईआर दर्ज करने की प्रक्रिया अधिक जवाबदेह (accountable) हो गई है।
अनिवार्य रूप से पुलिस अधीक्षक (SP) को आवेदन देना होगा – शिकायतकर्ता को मजिस्ट्रेट के पास जाने से पहले एसपी को आवेदन देना होगा, जिससे मामले की उचित समीक्षा हो सके।
मजिस्ट्रेट को जांच करने का अधिकार – मजिस्ट्रेट पुलिस को एफआईआर दर्ज करने के निर्देश देने से पहले जांच कर सकते हैं।
पुलिस अधिकारी को अपनी बात रखने का अवसर – एफआईआर दर्ज करने से पहले, मजिस्ट्रेट को पुलिस अधिकारी के स्पष्टीकरण पर विचार करना होगा।
"बीएनएसएस में यह प्रावधान किया गया है कि मजिस्ट्रेट को एफआईआर आदेश देने से पहले पुलिस की बात सुननी होगी, जिससे न्यायिक जवाबदेही सुनिश्चित की जा सके।" – सुप्रीम कोर्ट
इसके अलावा, बीएनएसएस धारा 175(4) सार्वजनिक अधिकारियों को गलत मुकदमों से संरक्षण (protection) प्रदान करता है और उनके वरिष्ठ अधिकारियों की रिपोर्ट के बिना कोई कार्रवाई नहीं हो सकती।
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सुप्रीम कोर्ट के फैसले का प्रभाव
यह निर्णय मजिस्ट्रेट और शिकायतकर्ताओं दोनों के लिए महत्वपूर्ण है:
- एफआईआर दर्ज करने की प्रक्रिया को अनावश्यक उपयोग से बचाएगा।
- मजिस्ट्रेट को उनके आदेशों में अधिक जवाबदेही प्रदान करेगा।
- न्यायिक प्रक्रिया को अधिक पारदर्शी बनाएगा।
- बीएनएसएस के नए प्रावधानों के साथ संगत होगा।
"मजिस्ट्रेट को किसी भी जांच का आदेश देने से पहले न्यायिक विवेक का उपयोग करना चाहिए। बीएनएसएस धारा 175(3) इस आवश्यकता को और मजबूत करता है।" – सुप्रीम कोर्ट
इन तथ्यों के मद्देनजर, सुप्रीम कोर्ट ने मजिस्ट्रेट द्वारा दिए गए एफआईआर आदेश को रद्द कर दिया और हाईकोर्ट के फैसले को निरस्त कर दिया।