दिल्ली हाईकोर्ट ने एक अहम फैसले में उस प्रक्रिया-संबंधी भ्रम को दूर किया है जिससे राजधानी की निचली अदालतें लंबे समय से जूझ रही थीं। अदालत ने कहा कि किसी मामले के सेशन कोर्ट में कमिट होने के बाद पूरक आरोपपत्र (supplementary chargesheet) अब भी संबंधित मजिस्ट्रेट के समक्ष ही दाखिल किया जाएगा, लेकिन उसके बाद आगे की जांच का आदेश देने का अधिकार केवल सेशन कोर्ट के पास रहेगा।
यह फैसला Court on Its Own Motion बनाम State (CRL. REF. 2/2022) शीर्षक मामले में 29 अक्टूबर 2025 को न्यायमूर्ति प्रतिभा एम. सिंह और न्यायमूर्ति रजनीश कुमार गुप्ता की पीठ ने सुनाया।
पृष्ठभूमि
यह मामला पटियाला हाउस कोर्ट से आया, जहाँ एक मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट खुद को दुविधा में पाया। देव राज नागर नाम के एक व्यक्ति के खिलाफ चल रहे एक मामले में, जाँच अधिकारी ने मजिस्ट्रेट के समक्ष एक पूरक आरोपपत्र दाखिल किया, जबकि मामला सीआरपीसी की धारा 209 के तहत सत्र न्यायालय को सौंप दिया गया था। यह सुनिश्चित न होने पर कि पूरक रिपोर्ट पर विचार करना या आगे कोई जाँच करने का निर्देश देना उनके अधिकार क्षेत्र में है या नहीं, मजिस्ट्रेट ने सीआरपीसी की धारा 395(2) के तहत उच्च न्यायालय से मार्गदर्शन माँगा।
दो प्रमुख प्रश्न उठे:
- केस के कमिट होने के बाद पूरक आरोपपत्र किसके समक्ष दाखिल किया जाए इलाका मजिस्ट्रेट या सेशन कोर्ट?
- कमिटल के बाद आगे की जांच का आदेश देने का अधिकार किसके पास होगा मजिस्ट्रेट या सेशन कोर्ट?
अदालत के अवलोकन
न्यायमूर्ति गुप्ता, जिन्होंने फैसला लिखा, ने पहले स्वीकार किया कि “दिल्ली की अदालतों में इस विषय पर अलग-अलग प्रथाएं चल रही हैं।” कुछ सेशन कोर्ट सीधे पूरक आरोपपत्र स्वीकार कर रहे थे, जबकि अन्य मजिस्ट्रेट के माध्यम से ही उन्हें लेने का निर्देश देते थे।
पीठ ने CrPC की धाराओं 173, 190 और 193 का विश्लेषण किया और Dharam Pal बनाम State of Haryana (2014) तथा Kallu Nat @ Mayank Kumar Nagar बनाम State of U.P. (2025) जैसे फैसलों का हवाला दिया। अदालत ने दोहराया कि “धारा 173(8) CrPC में ‘मजिस्ट्रेट’ वही अधिकारी है जो धारा 173(2) में उल्लिखित है,” अर्थात् पूरक आरोपपत्र भी उसी मजिस्ट्रेट को प्रस्तुत किया जाएगा जिसने मूल रिपोर्ट प्राप्त की थी।
पीठ ने कहा- “पूरक आरोपपत्र धारा 173(2) के अर्थ में पुलिस रिपोर्ट ही माना जाएगा, अतः उसे संबंधित मजिस्ट्रेट के समक्ष ही दाखिल किया जाना चाहिए।”
लेकिन आगे की जांच के अधिकार पर अदालत ने स्पष्ट किया “कमिटल के बाद सेशन कोर्ट मूल अधिकार क्षेत्र ग्रहण कर लेती है और निष्पक्ष सुनवाई सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक सभी शक्तियाँ उसी के पास होती हैं।”
न्यायमूर्ति गुप्ता ने कहा, “कमिट होने के बाद मजिस्ट्रेट, जांच से संबंधित पर्यवेक्षी शक्तियों में functus officio हो जाता है। उसके बाद आगे की जांच का आदेश केवल सेशन कोर्ट ही दे सकता है।”
नया कानून (BNSS 2023) का एकीकरण
यह फैसला इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि यह नये लागू हुए भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (BNSS), 2023 के अनुरूप है, जिसने 1 जुलाई 2024 से CrPC को प्रतिस्थापित कर दिया। अदालत ने विशेष रूप से धारा 193(9) BNSS का उल्लेख किया, जो धारा 173(8) CrPC के समान है, लेकिन एक नया प्रावधान जोड़ती है-
“ट्रायल के दौरान आगे की जांच केवल उस न्यायालय की अनुमति से की जा सकती है जो मामला चला रहा है।”
अदालत ने कहा कि यह नया प्रावधान
“अब किसी भी संदेह की गुंजाइश नहीं छोड़ता,” क्योंकि इससे स्पष्ट हो गया कि कमिटल के बाद जांच से संबंधित अधिकार सेशन कोर्ट के पास ही रहेंगे।
पीठ ने कहा-“धारा 193(9) BNSS का प्रावधान साफ दर्शाता है कि ट्रायल कोर्ट, यानी कमिट होने के बाद सेशन कोर्ट, ही आगे की जांच की अनुमति देने का अधिकार रखता है।”
फैसला
दिल्ली हाईकोर्ट ने दोनों प्रश्नों का निर्णायक उत्तर दिया-
- पूरक आरोपपत्र: यह मजिस्ट्रेट के समक्ष दाखिल किया जाएगा, जो आवश्यक औपचारिकताएँ (दस्तावेज़ों की आपूर्ति, संज्ञान लेना आदि) पूरी कर पुनः मामला सेशन कोर्ट को सौंपेगा।
- आगे की जांच: केस कमिट होने के बाद सेशन कोर्ट जो अब ट्रायल कोर्ट है को ही आगे की जांच की अनुमति देने या आदेश करने का विशेषाधिकार रहेगा।
मामले का निपटारा करते हुए न्यायमूर्ति गुप्ता ने निर्देश दिया कि इस निर्णय की प्रति दिल्ली के सभी प्रधान जिला एवं सत्र न्यायाधीशों को भेजी जाए ताकि “सभी अदालतों में समान प्रक्रिया लागू हो सके।”
यह फैसला पुराने CrPC और नये BNSS के बीच की प्रक्रिया-संबंधी खाई को भरता है और मजिस्ट्रेट, अभियोजकों तथा पुलिस अधिकारियों के लिए एक व्यावहारिक मार्गदर्शन प्रदान करता है।
Case Title: Court on Its Own Motion vs. State
Case Number: CRL. REF. 2/2022