केरल हाईकोर्ट ने गुरुवार (23 अक्टूबर 2025) को फिसल पी.जे. द्वारा दायर सांविधिक जमानत याचिका खारिज कर दी, जो अंगमाली पुलिस स्टेशन में दर्ज एक मादक पदार्थ मामले के तीसरे आरोपी हैं। न्यायमूर्ति के. बाबू ने सुनवाई के दौरान यह स्पष्ट किया कि चिकित्सकीय आधार पर दी गई अंतरिम जमानत की अवधि को हिरासत नहीं माना जा सकता, जब धारा 187(3) भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (BNSS), 2023 के तहत सांविधिक जमानत की गणना की जाती है।
44 वर्षीय फ़िसल ने यह दावा करते हुए रिहाई की माँग की थी कि उसने नारकोटिक ड्रग्स एंड साइकोट्रॉपिक सब्सटेंसेज (NDPS) अधिनियम के तहत अपराधों के लिए निर्धारित वैधानिक हिरासत अवधि पूरी कर ली है। लेकिन अदालत ने इससे असहमति जताते हुए कहा कि कानून वास्तविक हिरासत और अंतरिम रिहाई के बीच स्पष्ट अंतर करता है।
पृष्ठभूमि
याचिकाकर्ता को 18 फरवरी 2025 को अंगमाली पुलिस स्टेशन के क्राइम नंबर 1068/2024 के तहत गिरफ्तार किया गया था, जिसमें एनडीपीएस एक्ट की धाराएँ 22(C), 8(C) और 27(A) के साथ धारा 29 लगाई गई थी - ये सभी धाराएँ मादक पदार्थों के कब्जे और साजिश से संबंधित हैं।
शुरुआत में फिसल 24 मई 2025 तक न्यायिक हिरासत में रहे, जिसके बाद उन्हें चिकित्सकीय आधार पर अंतरिम जमानत दे दी गई। उनकी अंतरिम जमानत अवधि समाप्त होने के बाद, वे 9 सितंबर 2025 को दोबारा हिरासत में चले गए। उनके वकील के अनुसार, कुल हिरासत अवधि 180 दिनों की सांविधिक सीमा से अधिक थी, जो एनडीपीएस एक्ट के तहत वाणिज्यिक मात्रा के अपराधों पर लागू होती है।
उनके वकील ने दलील दी कि चूंकि अंतरिम जमानत के दौरान भी फिसल को पूर्ण स्वतंत्रता नहीं मिली थी, इसलिए उस अवधि को भी “हिरासत” माना जाना चाहिए। यह तर्क पहले के कुछ फैसलों पर आधारित था, जिनमें खंडित अवधि की हिरासत को एक साथ जोड़कर जमानत के लिए गिना गया था।
अदालत की टिप्पणियाँ
न्यायमूर्ति के. बाबू ने दोनों पक्षों और अमाइकस क्यूरी की दलीलें सुनने के बाद धारा 187(3) बीएनएसएस की व्याख्या की - जो पुराने दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 167(2) के समान है। इस धारा में कहा गया है कि यदि जांच निर्धारित अवधि (90 या 180 दिन, अपराध के प्रकार के अनुसार) में पूरी नहीं होती, तो आरोपी को जमानत का अधिकार प्राप्त हो जाता है।
सुप्रीम कोर्ट के गौतम नवलक्खा बनाम एनआईए (2022) और केरल हाईकोर्ट के साबू बनाम सीबीआई (2020) के फैसलों का हवाला देते हुए न्यायालय ने दोहराया कि खंडित हिरासत की अवधि को मिलाकर सांविधिक जमानत के लिए गिना जा सकता है।
हालांकि, अदालत ने यह महत्वपूर्ण प्रश्न उठाया कि क्या अंतरिम जमानत के दौरान की अवधि को भी हिरासत माना जा सकता है?
न्यायमूर्ति ने स्पष्ट कहा,
"याचिकाकर्ता अंतरिम जमानत पर रहते हुए उस अवधि को हिरासत नहीं कह सकते। केवल वास्तविक हिरासत - चाहे वह एक साथ हो या दो हिस्सों में - ही सांविधिक जमानत की गणना में गिनी जाएगी।"
अमाइकस क्यूरी ने आमिर हसन मीर बनाम जम्मू-कश्मीर केंद्रशासित प्रदेश (2022) का हवाला देते हुए कहा कि अस्थायी जमानत के दौरान आरोपी को स्वतंत्रता मिलती है, इसलिए वह अवधि हिरासत की श्रृंखला को तोड़ देती है।
गणना के बाद, अदालत ने पाया कि फिसल ने कुल 140 दिन ही वास्तविक हिरासत में बिताए हैं, जो कि आवश्यक 180 दिनों से कम है। इसलिए, उनकी सांविधिक जमानत की मांग समय से पहले थी।
निर्णय
अदालत ने यह कहते हुए याचिका खारिज कर दी कि “केवल वास्तविक हिरासत की अवधि ही गिनी जाएगी”, और अंतरिम चिकित्सकीय जमानत की अवधि को किसी भी स्थिति में बीएनएसएस की धारा 187(3) के तहत हिरासत नहीं माना जा सकता।
न्यायमूर्ति के. बाबू ने अपने आदेश में लिखा,
“आवश्यक निष्कर्ष यह है कि याचिकाकर्ता सांविधिक जमानत के पात्र नहीं हैं।”
मामले की सुनवाई समाप्त करते हुए अदालत ने अमाइकस क्यूरी के रूप में सहयोग देने वाले एडवोकेट के.पी. शरथ की सराहना की और उनके मूल्यवान योगदान के लिए आभार व्यक्त किया।
Case Title: Fisal P.J. vs State of Kerala & Another
Case Number: Bail Application No. 11634 of 2025










