दिल्ली हाईकोर्ट ने सोमवार को एडिडास इंडिया की एक पूर्व कर्मचारी द्वारा दायर की गई याचिका को खारिज कर दिया, जिसमें उसने कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न (Sexual Harassment) के आरोप लगाए थे और पीओएसएच (POSH) अधिनियम के तहत कार्रवाई की मांग की थी। न्यायमूर्ति सचिन दत्ता ने फैसला सुनाते हुए कहा कि यह मामला पहले से ही पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट के समक्ष विचाराधीन है, इसलिए दिल्ली कोर्ट इसमें दखल नहीं दे सकती।
पृष्ठभूमि
याचिकाकर्ता, जिनका प्रतिनिधित्व वरिष्ठ अधिवक्ता शोभा गुप्ता ने किया, ने दावा किया कि उन्होंने एडिडास इंडिया मार्केटिंग प्रा. लि. में नवंबर 2017 से जनवरी 2019 तक काम किया। जनवरी 2019 में उन्होंने कुछ वरिष्ठ कर्मचारियों पर यौन उत्पीड़न का आरोप लगाते हुए शिकायत दर्ज कराई। उनका कहना था कि कंपनी ने शिकायत को आंतरिक समिति (Internal Committee) को नहीं भेजा, जिससे कार्यस्थल पर महिलाओं के यौन उत्पीड़न की रोकथाम, निषेध और निवारण अधिनियम, 2013 (POSH Act) के प्रावधानों का उल्लंघन हुआ।
जब आंतरिक स्तर पर कोई कार्रवाई नहीं हुई, तो उन्होंने सरकार के SHe-Box पोर्टल के माध्यम से शिकायत दर्ज की, जिसे बाद में गुरुग्राम की स्थानीय समिति (Local Committee) को भेजा गया। इस समिति ने कार्यवाही शुरू की, लेकिन पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट ने मार्च 2021 में उन कार्यवाहियों को रद्द कर दिया, यह कहते हुए कि शिकायत सीमावधि (limitation period) से बाहर थी और प्रक्रियात्मक रूप से दोषपूर्ण थी।
दिल्ली हाईकोर्ट में नई याचिका दायर करते समय याचिकाकर्ता ने इस महत्वपूर्ण तथ्य का खुलासा नहीं किया - यही बिंदु बाद में अदालत की दलीलों का मुख्य कारण बना।
अदालत की टिप्पणियाँ
न्यायमूर्ति सचिन दत्ता ने टिप्पणी की कि सभी मुख्य घटनाएँ - जिनमें यौन उत्पीड़न का आरोप, शिकायतों का दायर किया जाना और आंतरिक जांच - गुरुग्राम में हुईं, जो दिल्ली हाईकोर्ट के क्षेत्राधिकार (territorial jurisdiction) से बाहर है।
“दोनों पक्षों के बीच वास्तविक विवाद पहले से ही पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट में विचाराधीन है,” पीठ ने कहा, और स्पष्ट किया कि दिल्ली हाईकोर्ट उसी विवाद पर दोबारा विचार नहीं कर सकती।
अदालत ने यह भी दर्ज किया कि याचिकाकर्ता पहले ही लैटर्स पेटेंट अपील (LPA No. 846/2021) पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट में दायर कर चुकी हैं, जो अब भी लंबित है।
“जब वही विवाद किसी सक्षम न्यायालय के समक्ष पहले से ही लंबित है, तब इस अदालत के लिए समानांतर कार्यवाही सुनना उचित नहीं होगा,” न्यायमूर्ति दत्ता ने कहा।
उन्होंने ONGC बनाम उत्पल कुमार बसु (1994) और कुसुम इंगोट्स एंड अलॉयज़ बनाम भारत संघ (2004) के फैसलों का हवाला देते हुए समझाया कि कोई हाईकोर्ट केवल तभी अधिकार क्षेत्र का प्रयोग कर सकती है जब कारण का कोई हिस्सा उसके क्षेत्र में उत्पन्न हुआ हो।
फिर भी, ‘फोरम कन्वीनियन्स (forum conveniens)’ के सिद्धांत के अनुसार, अदालत यह तय कर सकती है कि कौन सा मंच मामले के लिए अधिक उपयुक्त है।
अदालत इस बात से भी असहज दिखी कि याचिकाकर्ता ने दूसरे राज्यों में चल रही कार्यवाही की पूरी जानकारी नहीं दी।
"ऐसा गैर-प्रकटीकरण (non-disclosure) याचिकाकर्ता की विश्वसनीयता को प्रभावित करता है," न्यायालय ने सख्त शब्दों में कहा।
निर्णय
दोनों पक्षों की दलीलें सुनने के बाद दिल्ली हाईकोर्ट ने माना कि उसके पास क्षेत्रीय अधिकार क्षेत्र नहीं है, और यह भी कि याचिकाकर्ता की शिकायतें पहले से ही अन्य अदालत में विचाराधीन हैं।
इसलिए, अदालत ने याचिका को खारिज कर दिया, यह कहते हुए कि याचिकाकर्ता को अपने सभी उपाय पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट में ही तलाशने चाहिए, जहाँ उनकी अपील पहले से लंबित है।
अंत में अदालत ने कहा -
“यह अदालत वर्तमान याचिका पर विचार करने के लिए इच्छुक नहीं है; अतः इसे खारिज किया जाता है।”
सभी लंबित आवेदन भी निपटाए गए।
यह मामला दिखाता है कि किस प्रकार क्षेत्राधिकार के टकराव (jurisdictional overlap) और प्रक्रियात्मक चूकों के कारण, कभी-कभी POSH अधिनियम के तहत भी वास्तविक शिकायतें न्याय तक पहुँचने में अटक सकती हैं।
Case Title: X vs State of NCT of Delhi & Anr