जम्मू-कश्मीर और लद्दाख हाई कोर्ट ने बुधवार को तीन जुड़े हुए मामलों में एक विस्तृत निर्णय सुनाया, जिसमें PMLA (प्रिवेंशन ऑफ मनी लॉन्ड्रिंग एक्ट) के तहत लंबे समय से चल रही बहस को आखिरकार स्पष्ट कर दिया गया। लगभग एक घंटे चली बहस-जिसमें क़ानूनी व्याख्या और व्यावहारिक असर दोनों शामिल थे-के बाद पीठ ने कहा कि PMLA का अपीलीय अधिकरण वास्तव में मामलों को दोबारा सुनवाई के लिए अडजुडिकेटिंग अथॉरिटी को वापस भेजने (रिमांड) की शक्ति रखता है।
Background (पृष्ठभूमि)
मामले की शुरुआत उन आरोपों से हुई थी कि अपीलकर्ता ज़हूर अहमद शाह पाकिस्तान और पाकिस्तान हाई कमीशन से कथित रूप से आए धन का स्थानीय ‘कंडुइट’ था। NIA की जांच के अनुसार, वर्ष 2015–16 के दौरान लगभग ₹1.64 करोड़ रुपये प्राप्त किए गए और इन्हें कथित तौर पर कश्मीर में अलगाववादी गतिविधियों से जुड़े व्यक्तियों को पहुंचाया गया।
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जुड़े हुए संपत्तियों में से एक-DLF फेज़-II, गुरुग्राम स्थित बेसमेंट और ग्राउंड फ्लोर-ज़हूर की पत्नी सरवा ज़हूर के नाम थी। उन्होंने लगातार कहा कि उनका किसी FIR, ECIR या शिकायत से कोई संबंध नहीं है।
2019 में प्रवर्तन निदेशालय ने प्रोविजनल अटैचमेंट जारी किया, जिसे बाद में अडजुडिकेटिंग अथॉरिटी ने पुष्टि कर दी। जब दंपति ने अपील की, तो अपीलीय अधिकरण ने पुष्टि आदेश को तो रद्द कर दिया लेकिन मामले को दोबारा सुनवाई के लिए रिमांड कर दिया, साथ में यह निर्देश कि “रीज़न्स टू बिलीव” का सही और स्पष्ट उल्लेख दिया जाए। यही रिमांड आदेश हाई कोर्ट में चुनौती का मुख्य मुद्दा था।
Court’s Observations (कोर्ट की टिप्पणियाँ)
दलीलों के दौरान वरिष्ठ अधिवक्ता R.A. Jan ने ज़ोर देकर कहा कि अधिकरण के पास “कानूनी रूप से कोई अधिकार नहीं” है कि वह मामला वापस भेज सके, क्योंकि PMLA की धारा 26 में केवल पुष्टि, संशोधन या आदेश को रद्द करने की ही शक्ति दी गई है। उन्होंने अदालत में कहा-“जब संसद ने यह शक्ति दी ही नहीं, तो अधिकरण इसे मान कर कैसे चल सकता है?”
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लेकिन पीठ इस तर्क से आश्वस्त नहीं हुई। जस्टिस संजीव कुमार ने नोट किया कि “ऐसे आदेश जैसा वह उचित समझे”-यह वाक्यांश काफ़ी व्यापक है और इसे संकीर्ण तरीके से नहीं पढ़ा जा सकता। एक मौके पर कोर्ट ने टिप्पणी की-“अगर अधिकरण किसी आदेश को रद्द कर सकता है, तो उसे उस रद्दीकरण को प्रभावी बनाने की शक्ति भी होनी चाहिए, नहीं तो न्याय केवल काग़ज़ी बनकर रह जाएगा।”
कोर्ट ने कई सुप्रीम कोर्ट के फैसलों पर भरोसा किया, जिनमें उमेश धैमोडे और असम ट्रेवल्स शिपिंग सर्विस शामिल थे, जिन्होंने साफ़ कहा था कि जब किसी अधिकरण को आदेश रद्द या संशोधित करने की शक्ति दी जाती है, तो रिमांड की शक्ति उसका स्वाभाविक विस्तार होती है।
180 दिनों की प्रोविजनल अटैचमेंट अवधि समाप्त होने वाले तर्क पर भी अदालत ने सख़्त रुख लिया। सुप्रीम कोर्ट के पूर्व निर्णयों का संदर्भ देते हुए जस्टिस कुमार ने कहा कि “अटैचमेंट का ख़त्म होना, अपने-आप में, अडजुडिकेशन को खत्म नहीं कर देता। प्रक्रियाएँ अपने ‘लॉजिकल एंड’ तक पहुंचनी चाहिए।”
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Decision (निर्णय)
कोर्ट ने कहा कि इन अपीलों में “किसी भी प्रकार का कोई पदार्थ नहीं” है और तीनों को खारिज कर दिया। अपीलीय अधिकरण के 2024 के आदेश को पूरी तरह बरकरार रखा गया, जिससे अडजुडिकेटिंग अथॉरिटी को मामला उसी अवस्था से फिर से सुनने का मार्ग साफ़ हो गया, जहां से पहले पुष्टि आदेश दिया गया था।
इसके साथ ही, अंतरिम संरक्षण भी समाप्त हो गया और दंपति की रिमांड शक्ति को चुनौती देने वाली दलील पूरी तरह असफल रही। जुड़ी हुई अपीलें-RFA(OS) 2/2025 और RFA(OS) 3/2025-को भी इसी आधार पर निपटा दिया गया।
Case Title: Sarwa Zahoor & Anr. vs. Deputy Director, Directorate of Enforcement & Anr.
Case No.: RFA (OS) No. 1/2025, 2/2025, 3/2025
Case Type: Regular First Appeal (Original Side) under PMLA
Decision Date: 20 November 2025