पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय ने एक महत्वपूर्ण फैसला सुनाया है जिसका सीधा असर पूरे क्षेत्र में लंबित हजारों चेक बाउंस मामलों पर पड़ेगा। 24 सितंबर 2025 को सुनाए गए फैसले में, न्यायमूर्ति अनूप चितकारा और न्यायमूर्ति संजय वशिष्ठ की खंडपीठ ने इस विवादास्पद प्रश्न पर विचार किया कि क्या निगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स एक्ट (NI Act) के तहत अपील करने वाले दोषी को जमानत की पूर्व शर्त के रूप में निचली अदालत द्वारा दिए गए मुआवजे का 20% अनिवार्य रूप से जमा करना होगा।
पृष्ठभूमि
मेसर्स कोरोमंडल इंटरनेशनल लिमिटेड द्वारा दो फर्मों अंबिका सेल्स कॉर्पोरेशन और अंबालिका एग्रो सॉल्यूशंस के विरुद्ध एनआई अधिनियम की धारा 148 के तहत लगाई गई शर्तों को चुनौती देते हुए याचिकाएँ दायर की गई थीं। निचली अदालत ने अपीलकर्ता को सज़ा निलंबित करने की मांग करते हुए मुआवज़े की राशि का 20% जमा करने का निर्देश दिया था। याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया कि इस तरह के आदेश से अपील के दौरान ज़मानत पाने के उनके वैधानिक अधिकार पर प्रभावी रूप से प्रतिबंध लग जाता है, खासकर जब दोषसिद्धि अभी अंतिम नहीं हुई हो।
अदालत की सहायता के लिए वरिष्ठ अधिवक्ता दीपेंद्र सिंह को न्यायमित्र नियुक्त किया गया। उन्होंने ज़ोर देकर कहा कि एनआई अधिनियम की धारा 138 (चेक अनादर) के तहत अपराध ज़मानती और असंज्ञेय है, जिसमें अधिकतम दो साल की सज़ा हो सकती है।
उनके शब्दों में "केवल अंतरिम मुआवजा न दे पाने की वजह से किसी दोषी को जेल में रखना कानून की भावना के खिलाफ है।"
न्यायालय की टिप्पणियां
बेंच ने सुप्रीम कोर्ट के कई फैसलों का विस्तार से अध्ययन किया, जिनमें जी.जे. राजा बनाम तेजराज सुराना (2019), जांबू भंडारी (2023) और मुस्कान एंटरप्राइजेज (2024) शामिल थे।
न्यायाधीशों ने माना कि पहले की व्याख्याओं में धारा 148 में प्रयुक्त शब्द "may" को "shall" की तरह पढ़ा गया, जिससे 20% जमा करना अनिवार्य समझा गया। लेकिन बाद के फैसलों ने स्पष्ट कर दिया कि अपीलीय अदालतों के पास विवेकाधिकार है, खासकर उन मामलों में जहां ऐसी शर्त लगाने से अपीलकर्ता को जमानत से अनुचित रूप से वंचित होना पड़े।
पीठ ने कहा, "कानून में 'may' और 'shall' दोनों का सावधानीपूर्वक प्रयोग किया गया है," तथा इस बात पर जोर दिया कि "अपीलीय न्यायालय को असाधारण मामलों में जमा राशि माफ करने या कम करने का विवेकाधिकार प्राप्त है।"
साथ ही, अदालत ने यह भी नोट किया कि चेक बाउंस के प्रावधानों का दुरुपयोग ताकतवर साहूकारों और कंपनियों द्वारा कमजोर उधारकर्ताओं के खिलाफ किया जाता है। अक्सर गरीब या अशिक्षित उधारकर्ता छोटी रकम न चुका पाने पर अपनी जमीन-जायदाद गंवा बैठते हैं। यह सामाजिक हकीकत, न्यायालय ने कहा, वित्तीय शर्तें तय करते समय नजर में रखनी चाहिए।
फैसला
चार मुख्य सवालों पर हाई कोर्ट ने यह निर्णय दिया:
- हाँ, 20% जमा करने की शर्त टिकाऊ है, लेकिन यह निरपेक्ष नियम नहीं है।
- जमानत अधिकार शर्तों के अधीन हो सकते हैं, लेकिन अदालत को वित्तीय कठिनाई का संतुलन देखना होगा।
- सिर्फ जमा न कर पाने पर जमानत रद्द नहीं की जा सकती। अदालत ने कहा कि केवल आर्थिक अक्षमता के आधार पर स्वतंत्रता छीनी नहीं जा सकती।
- अपील सुनने के लिए 20% जमा करना पूर्व-शर्त नहीं है। केवल न जमा करने से अपील का अधिकार नहीं छिनेगा; वसूली अन्य कानूनी तरीकों से हो सकती है।
बेंच ने निष्कर्ष निकाला-
"जमा कराने की शर्त सामान्य नियम है, पर अपवादस्वरूप छूट दी जा सकती है। आर्थिक अक्षमता की कीमत पर स्वतंत्रता का बलिदान नहीं किया जा सकता।"
इस फैसले के साथ, हाई कोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट की विकसित होती दृष्टि के अनुरूप खुद को रखा है, जिससे एक संतुलन कायम होता है चेक धारकों के अधिकार की रक्षा भी और अपील की प्रतीक्षा कर रहे दोषियों की स्वतंत्रता भी।