एक नाटकीय मोड़ में, सुप्रीम कोर्ट ने कर्नाटक में हुए एक जघन्य हत्याकांड के तीन आरोपियों की दोषसिद्धि को रद्द कर दिया है। यह मामला, जो बकाया कर्ज़ के आरोपों से शुरू होकर साजिश और हत्या के आरोपों में बदल गया था, आखिरकार 22 सितंबर, 2025 को सुलझा, जब शीर्ष अदालत ने आरोपियों को संदेह का लाभ दिया। यह फैसला न्यायमूर्ति के. विनोद चंद्रन और न्यायमूर्ति के.वी. विश्वनाथन की पीठ ने सुनाया।
पृष्ठभूमि
यह घटना वर्ष 2006 की है। आरोप था कि एक पुलिसकर्मी (A1) ने अपने ही विभाग के एक अन्य पुलिस ड्राइवर से ₹1 लाख उधार लिया था। पैसा लौटाने में देरी से आपसी तनाव बढ़ा। अभियोजन का दावा था कि A1 की पत्नी (A2), अपने भाई और बहनोई (A3 और A4) के साथ मिलकर, क़र्ज़ चुकाने के बहाने मृतक को अपने घर बुलाया।
10 मार्च 2006 की रात को मृतक पर मिर्च पाउडर फेंका गया और फिर चॉपर्स से वार करके उसकी हत्या कर दी गई। अगले दिन सुबह A2 स्वयं थाने पहुँची और कथित रूप से अपराध स्वीकार किया। पुलिस ने शव को उसके घर से बरामद किया और हथियार भी ज़ब्त किए।
निचली अदालत ने A2 से A4 को हत्या का दोषी माना और धारा 302 आईपीसी के तहत उम्रकैद की सज़ा सुनाई। कर्नाटक हाईकोर्ट ने भी इस फैसले को बरकरार रखा।
अदालत की टिप्पणियाँ
सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में सबूतों को अलग नज़रिये से परखा। न्यायमूर्ति के. विनोद चंद्रन की पीठ ने कहा कि अभियोजन पक्ष के अधिकतर गवाह पड़ोसी, यहाँ तक कि मृतक की पत्नी भी या तो अपने बयान से पलट गए या फिर विरोधाभासी बातें कही।
कथित उधार को लेकर बने विवाद को भी अदालत ने अविश्वसनीय पाया। पीठ ने कहा,
"हम इस मामले में कोई ठोस उद्देश्य नहीं देख पाते कि वित्तीय लेन-देन ने अपराध को जन्म दिया।"
जहाँ तक A2 द्वारा पुलिस थाने में दिए गए बयान की बात है, न्यायालय ने साफ कहा कि थाने में की गई स्वीकारोक्ति कानूनी रूप से मान्य नहीं है।
"साक्ष्य अधिनियम की धारा 25 बिल्कुल स्पष्ट है पुलिस अधिकारी के सामने किया गया इक़रार अदालत में सबूत के रूप में इस्तेमाल नहीं किया जा सकता," बेंच ने कहा।
A4 से बरामद हथियार पर भी अदालत ने भरोसा नहीं जताया। न्यायालय ने कहा कि,
"सबूतों की पूरी कड़ी नहीं बनती और दोष सिद्धि संदेह से परे स्थापित नहीं होती।"
न्यायाधीशों ने यह भी याद दिलाया कि केवल किसी व्यक्ति के घर से शव मिलने मात्र से अपराध साबित नहीं होता, जब तक कि अभियोजन पक्ष अन्य पुख़्ता सबूत प्रस्तुत न करे।
फैसला
अंततः सुप्रीम कोर्ट ने माना कि अभियोजन का पूरा मामला विरोधाभासों और अविश्वसनीय गवाहियों से भरा है। अदालत ने कहा,
"प्रस्तुत किया गया उद्देश्य और अपराध स्वयं किसी भी तरह से सिद्ध नहीं हुआ। संदेह, सबूत का विकल्प नहीं हो सकता।"
इस आधार पर अदालत ने सभी आरोपियों को बरी कर दिया। आदेश में कहा गया कि यदि वे जेल में हैं तो तुरंत रिहा किए जाएँ, और यदि ज़मानत पर हैं तो उनकी जमानत रद्द समझी जाएगी।
लगभग दो दशक पुराने इस मामले, जिसने कभी कर्नाटक पुलिस महकमे को हिला दिया था, को अब देश की सर्वोच्च अदालत ने पूर्णविराम लगा दिया।
केस का शीर्षक: नागम्मा @ नागरत्ना और अन्य। बनाम कर्नाटक राज्य
केस संख्या: 2014 की आपराधिक अपील संख्या 425