एक महत्वपूर्ण फैसले में, जो भारत में विदेशी कंपनियों के टैक्स से जुड़े मामलों पर असर डाल सकता है, सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि किसी कंपनी की व्यावसायिक गतिविधियों में अस्थायी रुकावट का मतलब यह नहीं कि उसने कारोबार बंद कर दिया है। यह निर्णय Pride Foramer S.A. बनाम आयकर आयुक्त मामले में आया, जिसमें जस्टिस मनोज मिश्रा और जस्टिस जॉयमल्या बागची की पीठ ने फ्रेंच ऑयल ड्रिलिंग कंपनी को टैक्स कटौती का अधिकार देने से इंकार करने वाले उत्तराखंड हाई कोर्ट के आदेश को पलट दिया।
पृष्ठभूमि
Pride Foramer S.A., फ्रांस की एक कंपनी है जो ऑफशोर ऑयल ड्रिलिंग का काम करती है। इसे 1983 में ओएनजीसी (ONGC) से दस साल का ड्रिलिंग कॉन्ट्रैक्ट मिला था, जो 1993 तक चला। इसके बाद भी कंपनी ओएनजीसी से संपर्क में रही और 1996 में एक नया बिड भी जमा किया, हालांकि नया कॉन्ट्रैक्ट 1998 तक नहीं मिला।
इस बीच कंपनी ने विदेश से कामकाज संभाला, प्रशासनिक और प्रोफेशनल खर्च किए, और भारत में टैक्स रिफंड पर ब्याज से थोड़ी आय अर्जित की। उसने इन खर्चों को आयकर अधिनियम के तहत व्यापारिक व्यय के रूप में दिखाया, यह कहते हुए कि उसका व्यापार जारी रखने का इरादा कभी खत्म नहीं हुआ।
लेकिन टैक्स अधिकारियों ने दावा खारिज कर दिया, यह कहते हुए कि उस समय कंपनी की भारत में कोई व्यावसायिक गतिविधि नहीं थी। जबकि आयकर अपीलीय न्यायाधिकरण (ITAT) ने कंपनी के पक्ष में फैसला दिया और इस अवधि को “व्यवसाय में ठहराव” माना, हाई कोर्ट ने उस निर्णय को पलट दिया। इसके बाद कंपनी सुप्रीम कोर्ट पहुंची।
न्यायालय की टिप्पणियाँ
सुप्रीम कोर्ट ने विस्तार से इस सवाल पर विचार किया कि क्या Pride Foramer को उन वर्षों में “व्यवसाय कर रही” कंपनी माना जा सकता है।
जस्टिस बागची ने पीठ की ओर से कहा कि किसी सक्रिय कॉन्ट्रैक्ट या भारत में भौतिक कार्यालय की अनुपस्थिति का मतलब यह नहीं कि कंपनी ने अपना व्यापार बंद कर दिया है। अदालत ने कहा, “व्यवसाय का अस्थायी रूप से बंद होना, कई परिस्थितियों में यह संकेत दे सकता है कि कंपनी संक्रमण के एक कमजोर दौर से गुजर रही है, जिसे सही अवसर मिलने पर फिर से शुरू किया जा सकता है।”
अदालत ने यह भी स्पष्ट किया कि व्यवसाय शब्द का अर्थ केवल मुनाफा कमाना नहीं है, बल्कि व्यापारिक गतिविधियों को बनाए रखने, संचालित करने और उनकी रक्षा करने से जुड़ी कोशिशें भी इसमें शामिल हैं। पुराने मामलों का हवाला देते हुए कोर्ट ने कहा कि “व्यवसाय चलाने से संबंधित हर सहायक कार्य जैसे निविदा (बिड) जमा करना, पत्राचार करना या प्रशासनिक कामकाज बनाए रखना-भी इसी परिभाषा में आते हैं।”
हाई कोर्ट के संकुचित दृष्टिकोण को खारिज करते हुए पीठ ने कहा, “वैश्वीकरण के इस युग में यह कहना कि कोई विदेशी कंपनी जो अपने विदेशी कार्यालय से भारतीय संस्था से संपर्क कर रही है, उसे भारत में व्यवसाय कर रही नहीं माना जा सकता, यह सोच पूरी तरह अप्रासंगिक है।” कोर्ट ने जोर देकर कहा कि आयकर अधिनियम में कहीं यह नहीं कहा गया है कि किसी विदेशी कंपनी को भारत में ‘व्यवसाय में लगी’ माने जाने के लिए भारत में स्थायी कार्यालय (Permanent Establishment) होना अनिवार्य है।
निर्णय
उत्तराखंड हाई कोर्ट के आदेश को निरस्त करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने ITAT के निष्कर्षों को बहाल कर दिया। अदालत ने संबंधित वर्षों के लिए नए असेसमेंट आदेश जारी करने का निर्देश दिया, जिसमें वैध व्यावसायिक खर्चों और पुराने वर्षों की अवशिष्ट मूल्यह्रास (Depreciation) को समायोजित किया जाएगा।
इस फैसले के साथ, सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि भारत में टैक्स दायित्व तय करते समय किसी कंपनी की मंशा और उसके निरंतर व्यावसायिक प्रयास भी उतने ही अहम हैं जितना कि किसी सक्रिय अनुबंध का होना।
Case Title: Pride Foramer S.A. vs Commissioner of Income Tax & Anr
Citation: 2025 INSC 1247
Case Type: Civil Appeal Nos. 4395–4397 of 2010
Date of Judgment: October 17, 2025