गुरुवार को सुप्रीम कोर्ट ने एक अहम फैसले में इलाहाबाद हाईकोर्ट के उस आदेश को रद्द कर दिया जिसमें उत्तर प्रदेश विधान परिषद और विधानसभा सचिवालय में कर्मचारियों की भर्ती में कथित अनियमितताओं की जांच सीबीआई से कराने के निर्देश दिए गए थे। शीर्ष अदालत ने कहा कि केवल संदेह या अनुमान के आधार पर किसी मामले को केंद्रीय एजेंसी को सौंपा नहीं जा सकता।
“हाईकोर्ट का आदेश बिना किसी ठोस आधार के केवल संदेह और अनुमान पर आधारित था,” पीठ ने टिप्पणी की, यह जोड़ते हुए कि ऐसे असाधारण अधिकारों का उपयोग “सावधानीपूर्वक और सीमित परिस्थितियों में ही” किया जाना चाहिए।
पृष्ठभूमि
विवाद की शुरुआत 2021 में हुई जब कुछ अभ्यर्थियों ने उत्तर प्रदेश विधान परिषद सचिवालय में विभिन्न पदों की भर्ती प्रक्रिया (विज्ञापन संख्या 1/2020) को चुनौती दी। याचिकाकर्ताओं ने आरोप लगाया कि निजी भर्ती एजेंसियों द्वारा चयन प्रक्रिया में पक्षपात और मिलीभगत हुई।
अप्रैल 2023 में इलाहाबाद हाईकोर्ट की एकल पीठ ने कहा था कि भविष्य में पारदर्शिता बनाए रखने के लिए भर्ती प्रक्रिया निजी एजेंसियों के बजाय उत्तर प्रदेश अधीनस्थ सेवा चयन आयोग (UPSSSC) द्वारा कराई जानी चाहिए।
हालांकि अपील और आगे की सुनवाइयों के दौरान हाईकोर्ट की खंडपीठ ने इससे भी आगे बढ़कर 18 सितंबर 2023 को एक सुओ मोटो जनहित याचिका (PIL) दर्ज करने और सीबीआई से प्रारंभिक जांच कराने का आदेश दिया। समीक्षा याचिकाएं खारिज होने के बाद भी यह आदेश 3 अक्टूबर 2023 को बरकरार रखा गया।
इसके खिलाफ विधान परिषद और उत्तर प्रदेश सरकार सुप्रीम कोर्ट पहुंची। उनका कहना था कि हाईकोर्ट ने “अपनी अधिकार-सीमा पार कर दी” क्योंकि सीबीआई जांच का न तो कोई औपचारिक अनुरोध था और न ही कोई ठोस सबूत
न्यायमूर्ति जे.के. महेश्वरी ने न्यायमूर्ति विजय विश्नोई के साथ मिलकर फैसला सुनाया। उन्होंने कई पूर्व निर्णयों - स्टेट ऑफ वेस्ट बंगाल बनाम कमेटी फॉर प्रोटेक्शन ऑफ डेमोक्रेटिक राइट्स (2010) और सेक्रेटरी, माइनर इरिगेशन बनाम साहंगू राम (2002) आदि - का हवाला दिया और कहा कि सीबीआई जांच का आदेश “सामान्य प्रक्रिया के रूप में” नहीं दिया जा सकता।
पीठ ने कहा, “इन अधिकारों की व्यापकता खुद सावधानी की मांग करती है,” यह जोड़ते हुए कि किसी सीबीआई जांच के आदेश से पहले अदालत को ठोस सामग्री के आधार पर यह निष्कर्ष निकालना चाहिए कि ऐसी जांच आवश्यक है।
निर्णय में कहा गया कि अदालतें केवल “असाधारण परिस्थितियों” में ही हस्तक्षेप करें - जैसे जब स्पष्ट रूप से भ्रष्टाचार, प्रणालीगत विफलता या राज्य एजेंसी की निष्पक्षता पर संदेह हो।
पीठ ने स्पष्ट शब्दों में कहा, “खंडपीठ ने भर्ती एजेंसी के डेटा को लेकर केवल संदेह के आधार पर जांच का आदेश दिया, जबकि किसी भी अपराध का prima facie (प्रथम दृष्टया) सबूत नहीं था।” अदालत ने यह भी दर्ज किया कि मूल याचिकाकर्ताओं ने स्वयं कभी सीबीआई जांच की मांग नहीं की थी।
निर्णय
सुप्रीम कोर्ट ने 18 सितंबर और 3 अक्टूबर 2023 को दिए गए इलाहाबाद हाईकोर्ट के आदेशों को निरस्त करते हुए विधान परिषद और राज्य सरकार की सभी अपीलें मंजूर कर लीं।
शीर्ष अदालत ने निर्देश दिया कि इलाहाबाद हाईकोर्ट की खंडपीठ अब स्पेशल अपील डिफेक्टिव नंबर 485 ऑफ 2023 की सुनवाई केवल उसके गुण-दोष (merits) के आधार पर करे और पहले दिए गए सीबीआई जांच के निर्देशों से प्रभावित न हो।
अदालत ने यह भी स्पष्ट किया कि अपील को सुओ मोटो जनहित याचिका में बदलने का आदेश भी अमान्य है। उसने यह निर्णय हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश पर छोड़ दिया कि क्या ऐसी याचिकाएं अदालत के नियमों के अनुसार अलग से दर्ज की जा सकती हैं।
इस फैसले के साथ, शीर्ष अदालत ने फिर दोहराया कि सीबीआई जांच के आदेश “अंतिम उपाय (measure of last resort)” के रूप में ही दिए जाने चाहिए और न्यायिक संयम (judicial restraint) का पालन आवश्यक है।
Case: Legislative Council U.P. Lucknow & Ors. vs. Sushil Kumar & Ors.
Case Type: Civil Appeal (arising out of SLP (C) Nos. 22746, 22726, 22970–71 of 2023 & 457 of 2024)
Citation: 2025 INSC 1241
Appellants: Legislative Council, U.P. Lucknow & the State of Uttar Pradesh
Respondents: Sushil Kumar & Ors., Vipin Kumar & Ors.
Judgment Date: October 16, 2025