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तमिलनाडु युवक की फांसी सुप्रीम कोर्ट ने बदली आजीवन कारावास में, कहा- निष्पक्ष बचाव के अधिकार का हनन हुआ

Vivek G.

सुप्रीम कोर्ट ने चेन्नई बालिका बलात्कार-हत्या मामले में आरोपी की फांसी घटाई, कहा- ट्रायल अनुचित, बचाव का अधिकार छीना गया।

तमिलनाडु युवक की फांसी सुप्रीम कोर्ट ने बदली आजीवन कारावास में, कहा- निष्पक्ष बचाव के अधिकार का हनन हुआ

बुधवार को सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐसा फैसला सुनाया जिसने अदालत का माहौल भावनाओं से भर दिया। सात वर्षीय बच्ची के बलात्कार और हत्या के मामले में दोषी ठहराए गए चेन्नई निवासी दशवंत की फांसी को अदालत ने आजीवन कारावास में बदल दिया। जस्टिस मेहता की अध्यक्षता वाली पीठ ने कहा कि निचली अदालत का मुकदमा “बेहद जल्दबाज़ी में” चलाया गया और इससे “न्याय की जड़ों पर ही प्रहार हुआ।”

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पृष्ठभूमि

यह मामला 2017 में पूरे तमिलनाडु को झकझोर देने वाला था। एक सॉफ्टवेयर कर्मचारी की सात वर्षीय बेटी अपने मंगाडु स्थित घर से लापता हुई थी। कुछ घंटे बाद, उसका झुलसा हुआ शव अनाकापुर बाइपास के पास झाड़ियों में मिला। आरोपी, 23 वर्षीय युवक, उसी अपार्टमेंट में रहता था और पुलिस के अनुसार उसने अपराध स्वीकार किया था।

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मुकदमे की प्रक्रिया अविश्वसनीय रूप से तेज़ रही - इतनी तेज़ कि सर्वोच्च न्यायालय ने बाद में इसे खुद ही सवालों के घेरे में ले लिया। आरोप तय होने के दो महीने के भीतर ही चेंगलपट्टू महिला अदालत ने कार्यवाही पूरी कर फरवरी 2018 में फांसी की सज़ा सुना दी। जुलाई 2018 में मद्रास हाईकोर्ट ने भी सजा की पुष्टि कर दी।

लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इस पूरे मामले में सिर्फ अपराध नहीं, बल्कि प्रक्रिया को भी परखा।

अदालत की टिप्पणियाँ

न्यायमूर्ति मेहता ने फैसला सुनाते हुए साफ कहा-

“मुकदमा पूरी तरह असंतुलित तरीके से चला और निष्पक्ष सुनवाई के सिद्धांतों की अवहेलना की गई।”

अदालत ने पाया कि आरोप तय होने के समय दशवंत के पास कोई वकील नहीं था और उसे कानूनी सहायता वकील केवल कुछ दिन पहले ही दिया गया। पीठ ने कहा, “मौत की सज़ा जैसे मामले में अगर बचाव पक्ष के वकील को तैयारी के लिए सिर्फ चार दिन मिले, तो यह बचाव नहीं, औपचारिकता है।”

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न्यायालय ने कई गंभीर खामियाँ गिनाईं - आरोपपत्र की प्रतियाँ समय पर न देना, 30 गवाहों की जल्दबाज़ी में छह हफ्तों के भीतर गवाही कराना और सजा पर उचित सुनवाई का अभाव। आदेश में कहा गया, “ट्रायल जज ने जिस तरह जल्दबाज़ी में फैसला दिया, वह न्यायिक गरिमा के विपरीत है।”

साक्ष्यों के स्तर पर भी अदालत ने भारी विरोधाभास पाए। ‘अंतिम बार साथ देखे जाने’ वाला गवाह घटना के लगभग तीन महीने बाद सामने आया; जिस सीसीटीवी फुटेज पर पुलिस ने भरोसा किया, वह कभी अदालत में पेश ही नहीं हुआ; और अभियुक्त के बयान पर कथित रूप से जो बरामदगी हुई, वह भी संदिग्ध पाई गई। अदालत ने कहा, “परिस्थितियों की श्रृंखला टूटी हुई थी… अभियोजन की कहानी साबित कम और गढ़ी हुई ज़्यादा लगती है।”

निर्णय

सुप्रीम कोर्ट ने यह तो नहीं कहा कि दशवंत निर्दोष है, लेकिन यह साफ किया कि उसे फांसी नहीं दी जा सकती। अदालत ने कहा कि निचली अदालत और हाईकोर्ट - दोनों ने यह सुनिश्चित नहीं किया कि सजा से पहले ‘गंभीर और नरम परिस्थितियों’ की रिपोर्ट या अभियुक्त का मनोवैज्ञानिक मूल्यांकन प्राप्त किया जाए।

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न्यायमूर्ति मेहता ने कहा, “फांसी की सज़ा जल्दबाज़ी में दी गई थी, इसलिए यह सज़ा अमान्य है।” अदालत ने सज़ा को आजीवन कारावास में बदलते हुए दोहराया कि गंभीर अपराधों में भी प्रक्रिया का पालन केवल औपचारिकता नहीं, बल्कि संवैधानिक गारंटी है।

आठ वर्षों तक चले इस मुकदमे का अंत उसी अदालत में हुआ जहाँ से उम्मीद भी थी कि न्याय के नाम पर जल्दबाज़ी नहीं, बल्कि संतुलन मिलेगा। अदालत कक्ष में मौजूद लोगों के लिए यह फैसला एक याद दिलाने वाला क्षण था- कि सबसे भयावह अपराधों में भी कानून के रास्ते में शॉर्टकट की कोई जगह नहीं होती।

Case Title: Dashwanth v. State of Tamil Nadu (2025 INSC 1203)

Case Type: Criminal Appeal Nos. 3633–3634 of 2024

Appellant: Dashwanth

Respondent: State of Tamil Nadu

Date of Judgment: 2025

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